यूजी मेरे गुरुदेव: महेश भट्ट



मैं यूजी से अपने रिश्ते को परिभाषित नहीं कर सकता। क्या हमारे बीच गुरु-शिष्य का रिश्ता था? हाँ था, लेकिन यूजी खुद को गुरु नहीं मानते थे और न मुझे शिष्य समझते थे। कुछ था उनके अंदर, जो उनके सत्संग और संस्पर्श से मेरे अंदर जागृत हो उठता था। उनके स्पर्श ने मुझे झंकृत कर दिया था, मानो मेरे तन-मन के सारे तार बज उठे हों। उन पर लिखी अपनी पुस्तक ए टेस्ट ऑफ लाइफ की पिछले दिनों मुंबई में रिलीज के मौके पर मैं इतना द्रवित हो उठा था कि खुद को रोकने के लिए मुझे अपनी उंगली दांतों से काटनी पड़ी। अनुपम खेर को मेरा उंगली काटना हास्यास्पद लगा, लेकिन मुझे कोई और उपाय नहीं सूझा। मैंने इंगमार बर्गमैन की फिल्मों में देखा था कि उनके किरदार गहरे दर्द से निकलने के लिए खुद को जिस्मानी तकलीफ पहुंचाते थे, ताकि दर्द कहीं शिफ्ट हो जाए। मैं वही कर रहा था। मेरे अंदर उनकी यादों का ऐसा समंदर है, जो बहना शुरू हो जाए तो रूकेगा ही नहीं। उस दिन जो सभी ने देखा, वह तो एक कतरा था।
यूजी से अपने रिश्ते पर मैं घंटों बात कर सकता हूं। मेरी बातचीत में शिद्दत ऊंची होगी और समुद्री ज्वार की तरह मेरे शब्द उछाल मारेंगे। उनकी बातें करते हुए मेरी हड्डियों से एहसास का लावा निकलता है। ए टेस्ट ऑफ लाइफ मैंने उनके अंतिम दिनों पर लिखी है। अब मेरी समझ में आ रहा है कि क्यों हर संस्कृति में लोग अपने गुरु और उस्ताद की बातें करते हुए कभी नहीं थकते। स्वामी विवेकानंद क्यों हमेशा रामकृष्ण परमहंस का उल्लेख करते थे? क्यों जलालुद्दीन रूमी सिर्फ शम्स की बातें करता है? एक अजीब सा रिश्ता होता है वह। वह रिश्ता माता-पिता के वात्सल्य और प्रेमिका के प्रेम से भी अलग और बड़ा होता है। उस रिश्ते की गर्मी के बराबर का ताप कोई और रिश्ता नहीं दे सकता। जिस तरह मेरी मां ने अपने शरीर से मुझे जन्म दिया, वैसे ही यूजी ने मुझे तराशा और नया जन्म दिया। महेश भट्ट अगर कुछ है। उसकी कोई आवाज है। तो उस आवाज में यूजी का जादू है।
मैं विद्रोही और अराजक किस्म का व्यक्ति था। जीवन में कहीं बंध कर नहीं रहा। स्वच्छंद विचार और व्यवहार आकर्षित करते थे। जवानी में एलएसडी के सेवन के बाद रहस्यात्मक आध्यात्मिक एहसास हुआ। वह दौर ही ऐसा था। हम सभी छटपटा रहे थे। सांस्कृतिक कैद से निकलना चाह रहे थे। हर तरफ झूठ का ढांचा हावी था। वह हमें अपनी गिरफ्त में लेना चाहता था। हम उस ढांचे से निकलना चाहते थे। मेरे स्वभाव में आध्यात्मिकता थी। मैं बचपन से ही योगी की मुद्रा में बैठ जाता था। मेरी मां पूछती थी, 'तू फकीर है क्या? ऐसे योगियों की तरह पालथी क्यों मारता है? चुप बैठा रहता है। श्मशान घाट में जाकर बैठता है।' मैं शिवाजी पार्क में भटकता रहता था। मां मुझे जबरदस्ती खेलने के लिए भेजती थी। मां का झूठ, पड़ोसियों से मिला अपमान और उस अपमान का रिसता घाव ़ ़ ़ चीखने-चिल्लाने का मन करता था।
16-17 की उम्र में इश्क किया। छोटी उम्र में शादी कर ली। बीस की उम्र में तो पूजा का बाप बन गया था मैं।
मुश्किलों और उलझनों से भरी जिंदगी रही। फिर रजनीश, जे. कृष्णमूर्ति और उनके प्रवचन ़ ़ ़ तोते की तरह उनके शब्दों को दोहराना, मगर एक गहरा एहसास कि उन शब्दों से जख्मी जिस्म ढंका जा सकता है। घाव तो फिर भी रिसता रहेगा। पोशाक से घाव नहीं रुकते। जिस लड़की से शादी की थी। उससे विश्वासघात किया। परवीन बाबी से इश्क किया। ढाई साल तक मेरी समझ में नहीं आया कि जीवन की नाव किधर जा रही है? उसी दरम्यान यूजी से मुलाकात हुई। उन्होंने कहा कि अपने जीवन और तकलीफों से मुक्ति नहीं पा सकते। यहीं जीना और यहीं मरना है। तुम अगर किसी सत्य की खोज में हो तो वह किसी के यहां नहीं मिलेगा। अपने ढंग से जियो और लड़ो। उनकी इन बातों ने मेरी दिशा बदल दी। फिर अर्थ और सारांश बनी। जिंदगी की नयी शुरुआत हुई।
33 की उम्र में मैं मशहूर हो गया था। फिर लगा कि क्या जिंदगी भर यही करते रहेंगे? सिर्फ फिल्में बनाते रहेंगे? मन में सवाल उठे। उनके जवाब नहीं मिले। यूजी के पास पहुंचे। उनकी बातों में जवाब मिला। उन्होंने बताया कि जीना ही जिंदगी का अर्थ है। उसे भरपूर जियो। जिंदा आदमी जीता है। देखें तो वास्तव में हमारे पास अपने सवाल नहीं होते। हम अपने पूर्वजों के दिए जवाबों को ही सवाल बना देते हैं और नए जवाब खोजते हैं। उनसे सीखा कि अपनी औकात समझो। हमें भ्रम रहता है कि हम बहुत कुछ जानते हैं, जबकि हम कुछ खास नहीं जानते हैं। यूजी के साथ के बावजूद क्या मैं जिंदगी के रहस्य समझ पाया हूं? नहीं, बिल्कुल नहीं। दर्द क्या होता है? तकलीफ क्यों होती है? प्यार क्यों होता है? प्यार क्यों खत्म हो जाता है?
हमारे रिश्ते को गुरु-शिष्य संबंध कहना ही ठीक रहेगा। मां और यूजी से ही मेरा संपूर्ण रिश्ता हो पाया। यूजी का दर्जा थोड़ा ऊंचा ही रहेगा। हम दोनों दुनियावी व्यक्ति थे। पैसे कमाने की बात करते थे। उन्होंने मुझे लिखना सिखाया और कहा कि अपनी आवाज लोगों तक पहुंचाओ। उन्होंने कहा कि अगर तुम्हें लगता है कि मैंने तुम्हारे लिए कुछ किया तो वही लोगों के साथ करो। उन्हें बताओ, संभालो, तराशो और उनकी क्षमताओं से उन्हें परिचित कराओ। उनसे मेरा रिश्ता भावनात्मक ही रहा। मैं बौद्धिक और आध्यात्मिक नहीं हूं। वे भी नहीं थे। उनकी खुशबू मेरी रूह में उतर गयी है। मेरे अंदर उनकी ही महक है। मैं जो भी हूं, वह यूजी का रचा है। मैं पूरी तरह जिंदगी में डूबा हुआ हूं, लेकिन मेरा दम नहीं घुट रहा है। मेरी सांसें चलती रहती हैं। मैं पूरी शिद्दत से हर काम करता हूं, लेकिन उस काम की नश्वरता भी समझता हूं। मैं आईना हो गया हूं। मैं जहां रहता हूं, वही दिखता है मुझ में!''

Comments

Pratik Pandey said…
यूजी हमेशा कहते रहे कि न तो वे किसी के गुरू हैं, न ही उनसे कोई कुछ सीख सकता है और न ही उनकी बातें किसी को कुछ फ़ायदा दे सकती हैं। भट्ट साहब ने यूजी की सारी बातों का खण्डन कर दिया इस लेख में तो। पहले उन्हें गुरू ठहराया,फिर उनके तथाकथित संदेश का ज़िक्र किया। ख़ैर, अब खण्डन करने के लिए यूजी तो रहे नहीं। सो सब सही है।
Rangnath Singh said…
nice post....fursat mili to ye book padhunga...
इस पुस्तक के विषय में खुशवन्त सिंह ने एक अखबार के लिये अपने लेख में लिखा है कि पुस्तक में यूजी को महेश भट्ट ने ईश्वर ही बना दिया है, जिसके वे खिलाफ़ थे।
Firoj khan said…
बुद्ध ने कहा ईश्वर नहीं है, लोगों ने उन्हें ईश्वर बना दिया और मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजने लगे। यूजी ने कहा, मैं गुरु नहीं हूं, लोगों ने उन्हें गुरु ही नहीं, लगभग ईश्वर बना दिया। महेश भट्ट ने भी लगभग यही किया। वैसे इस प्रभाव से थोड़ा बाहर निकलकर वे दर्शक की तरह तमाम अनुभवों को देखते तो यह आगे का कदम होता। अनुभव बहुत अच्छे हैं उनके, लिखा भी अच्छा है।
Unknown said…

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