हमें तो कहीं कोई सांस्कृतिक आक्रमण नहीं दिखता - गुलजार

-अजय ब्रह्मात्‍मज


पाठको के लिए गुलजार साहब किसी परिचय के मोहताज नहीं। फिल्मों में गीत, संवाद, लेखन, निर्देशन के माध्यम से उन्होंने अपनी खास संवेदनशीलता को अभिव्यक्त किया है। उनकी फिल्में चालू मसालों से अलग होने के बावजूद दर्शकों को प्रिय रही हैं। उन्होंने न केवल विषय और निर्देशन को लेकर बल्कि 'छबिबद्घ' हो गए जितेंद्र विनोद खन्ना, डिंपल कपाडिया जैसे मशहूर कलाकारों के साथ भी अभिनय प्रयोग किया है। टीवी पर 'गालिब' के जीवन और उनकी गलजों को जिस खूबसूरती से उन्होंने पेश किया, वह जीवनीपरक धारावाहिकों में मिसाल है। बच्चों के लोकप्रिय धारावाहिक 'पोटली बाबा की' और 'जंगल की कहानी' के शीर्षक गीत न सिर्फ बल्कि सयानों के होठों पर भी थिरकतें हैं। गीतों की सादगी और उनमें मौजूद मधुरिम लय के साथ शब्दों का नाजुक चुनाव ही शायद उनकी  लोकप्रियता की वजह है। गुलजार साहब कहते हैं, 'मुझे तो बच्चों ने गीत दिए हैं। मैंने तो केवल उन्हें सजा दिया है।'
इन दिनों गुलजार दूरदर्शन के लिए 'किरदार' धारावाहिक बनाने में व्यस्त हैं। शायद दर्शकों को याद हो कि पिछले वर्ष दूरदर्शन ने इसके प्रसारण की घोषणा भी कर दी थी पर वह नहीं आया। नहीं आया तो दूरदर्शन ने सफाई देने की जरूरत नहीं समझी। गुलजार बताते हैं कि मैंने तब केवल पायलट भेजे थे। उन्होंने पायलट मंजूर किया और शायद यह मान बैठे कि सारे एपीसोड तैयार होंगे या हो जाएंगे। इसी गलतफहमी में शायद उन्होंने घोषणा भी कर दी थी। आजकल वे इसी 'किरदार' को पूरा कर रहे हैं। प्रवेश भारद्वाज बरेली के निवासी हैं। तेरह एपीसोड का यह धारावाहिक कहानियों पर आधारित है। इसमें उर्दू, हिंदी, बांग्ला, असमी, पंजाबी, तमिल भाषाओं की कहानियां हैं। अब्दुल नदीम कासमी, मालती जोशी, टी. आर. रेड्डी और करतार सिंह दुग्गल की कहानियों पर आधारित इस धारावाहिक के हर एपीसोड में कुछ खास चरित्र हैं। इन चरित्रों के माध्यम से जीवन की विभिन्न दशाओं, भावनाओं और आकांक्षाओं की कथा कही गई है। कलाकारों में ओमपुरी लगभग सभी एपीसोड में मौजूद रहेंगे। गुलजार साहब के अनुसार डिंपल कपाडिया के भी काम करने की संभावना है। डिंपल ने स्वयं यह इच्छा गुलजार भाई से प्रकट की थी। शेष कलाकारों में इरफान, नीनी गुप्ता, एस. एम. जहीर और प्रीति खरे हैं।
बातचीत आरंभ होने पर गुलजार साहब पहले एक गुत्थी की तरह खुलने को तैयार न थे। उन्होंने शुरू के प्रश्नों के जवाब में प्रति प्रश्न किए, लेकिन एक बार संवाद कायम होते ही वे खुलते गए और बेलाग तरीके से अपने विचार रखे। प्रस्तुत हैं बातचीत के मुख्य अंश -
-     पिछले साल 'किरदार' आने की बात थी। घोषणा भी हो गई थी, फिर क्यों नहीं आ पाया?
0     जिस वक्त हमने पायलट भेजा था, उस वक्त गलती से घोषणा हो गई थी। उन्हें पायलट मिला। पायलट मंजूर किया उन्होंने और शायद उनका ख्याल था कि बाकी तमाम एपीसोड भी तैयार होंगे। मैं इधर पायलट की मंजूरी का इंतजार कर रहा था। बाद में मैंने उन्हें लिखा कि आपने अभी पायलट मंजूर किया है। बाकी बनाने में अभी वक्त है।
-     अभी क्या स्थिति है?
0     अब आधे से ज्यादा हो गया है। सिर्फ कहानियों पर है। ज्यादातर साहित्य से ली गई हैं कहानियां। मेरी भी कहानी हैं। उर्दू से चार कहानियां हैं। हिंदी की तीन, बांग्ला की दो, असमी और तमिल की एक-एक हैं। कुछ इस तरह से चुनाव किया है।
-     कहानियों पर ही धारावाहिक बनाने को क्यों सोचा आपने? आप सोप आपेरा किस्म की चीजें भी बना सकते थे।
0     मैं वो बनाता तब भी आप यही सवाल पूछते कि आपने ये क्यों किया?
-     नहीं, मैं आपकी पसंद की वजह जानना चाहता हूं।
0     मैं अगर जीवनी चुन लूं तो आप पूछेंगे कि कामेडी क्यों नहीं चुनी? कामेडी  चुन लूं तो कहेंगे ट्रेजडी क्यों नहीं चुनी। इस तरह तो सवाल का अंत ही नहीं होगा। मैं कमीज पहनूं तो आप कहेंगे बुशर्ट क्यों नहीं पहनी? बुशर्ट पहनूं तो पूछेंगे कि कुर्ता क्यों नहीं पहना? ये क्या बात है।
-     पहले आपने एक साहित्यकार की जीवनी चुनी और अब कहानियां। टीवी माध्यम में आप साहित्य के करीब होना चाहते हैं। मैं इसकी वजह जानना चाहता हूं।
0     यह माध्यम साहित्य के करीब है या कम से कम साहित्य के करीब आना चाहता है। टीवी फिल्म का माध्यम साहित्य के जितना करीब आएगा, उतना अच्छा होगा। उतना सृजनत्मक होगा। साहित्य सही स्रोत है। अनाज के गोदाम से तो कहानी नहीं मिलेगी। कहानी साहित्य से ही लेनी होगी।
-     लेकिन कहानी पर बने धारावाहिक  लोकप्रिय नहीं हो पाते?
0     क्या जरूरी है कि लोकप्रिय हों?
-     लोकप्रियता से मेरा आशय मेट्रो या जी टीवी के कार्यक्रमों से नहीं है। मैं जानना चाहता हूं कि क्या दर्शक का भावबोध उस स्तर का है? क्या वह उसे स्वीकार कर पाएगा?
0     ये तो मैं नहीं कह सकता। पता नहीं क्या होगा? दर्शक के भावबोध की चिंता करें तो कविता लिखना बंद कर दें। अगर ये सवाल लेकर बैठें तो शायरी बंद कर दें।
-     मगर हर सृजन का एक निश्चित दर्शक, पाठक या श्रोता होता है। जब आप साहित्य लिख रहे होते हैं, तो एक निश्चित पाठक होता होगा?
0     इसमें भी है।
-     कौन हैं?
0     साहित्य में जो रूचि रखते हैं, वे देखते। और हैं ऐसे दर्शक। यह किसने कह दिया आपको कि वे रूचि नहीं रखते।
-     पर क्या दर्शक सचमुच रूचि रखते हैं कहानियों में?
0     क्यों नहीं? छोटी कहानी की विधा साहित्य में है। आप पढ़ते हैं। आप पढ़ते है तो आप देख भी सकते हैं। कहानियों में रूचि रखने वाला दर्शक देखेगा। फिल्म से जुड़ा हूं तो इसका यह मतलब नहीं कि लंबी चीजें ही करूं। जो सिनेमा में नहीं कर पाते वह यहां करें। इन अफसानों पर फिल्म नहीं बनाई जा सकती। लेकिन अच्छी कहानी पर पच्चीस-तीस मिनट का एक अच्छा एपीसोड बनाया जा सकता है। यही करना चाहिए। हम मशूहर लेखकों की कहानियां दे सकें। ये तो जिंदगी के स्लाइसेज (टुकड़े) हैं। यदि ये दे सकें तो इससे अच्छी बात क्या होगी। लोकप्रिय चीजें बनाने के बजाए इसके कि सस्ते मनोरंजन में बीस मिनट गुजर जाएं, क्या फायदा उससे?
-     स्टार, जी टीवी आया तो शोर हुआ कि सांस्कृतिक आक्रमण हो रहा है। मेट्रो उसी के जवाब में दूरदर्शन ने पेश किया। इस पूरे संदर्भ में आप क्या सोचते हैं?
0     हमें तो कहीं कोई सांस्कृति आक्रमण नहीं दिखता, बल्कि यह है कि मुल्क की आर्थिक व्यवस्था पर बहुत बड़ा असर पड़ रहा है। जो बड़ी और समझने-सोचने वाली बात है, आपके पास प्रोग्राम नहीं है। सॉफ्टवेयर नहीं है। एक कंगाली जैसी स्थिति है। आपने चार-पांच चैनल शुरू कर दिए, पर कार्यक्रम कहां हैं? सिवाय इसके कि आप फिल्में दोहराते रहें, आप क्या कर सकते हैं? कभी गाने दिखा दीजिए। कभी फिल्मी कलाकारों के इंटरव्यू। आपके पास न तो स्पोर्ट्स पर कार्यक्रम है और न जितने नामों से चैनल खुल हैं, उसके कार्यक्रम हैं। म्यूजिक, साहित्य, क्लासिक चीजें कुछ नहीं हैं। फिर क्या है, कहां है? घूम-घूमाकर फिल्में दिखा देते हैं। फिर फिल्मों से जुड़ी चीजें दिखा देते हैं। मेरा खयाल है कि दर्शक उससे भी बोर हो चुके हैं, जो नहीं हुए हैं, वे हो जाएंगे।
पहले छाया गीत और चित्रहार हफ्ते में एक-दो बार आता था तो रोचक लगता था। अब जब भी बटन दबाइए वही चल रहा है। गीत ही चल रहे हैं सब जगह। महीने भर में लगातार देखकर दर्शक बोर हो जाएगा। इम्यून कर दिया उसे। स्टार टीवी शुरू हुआ तो हमें लगा कि सांस्कृतिक आक्रमण हो गया। पर पांच-छह महीने की नई बात थी। उसके बाद तो अब कोई भी नहीं देखता। हालांकि उन्हें तिश्नगी (प्यास) है इस बात की, कि हिंदी में उन्हें अच्छे प्रोग्राम मिलें।
-     आपने मैट्रो चैनल देखा होगा। आपको कौन-सा कार्यक्रम अच्छा लगा?
0     मैंने दस-दस, पांच-पांच या तीन-तीन मिनट देखा होगा। बंद कर दिया। एन. एफ. डी. सी. ने जो शुरू किया है। अब बताइए कि एनएफडीसी के डेवलपमेंट का रोल यह है? क्या जरूरत है डम डमा डम डम की? अगर यही करना है एनएफडीसी को तो मेरा खयाल है कि बोरिया-बिस्तर उठाएं, संभालें। इसमें डेवलपमेंट किस बात की। वहां कोई रवि मलिक हैं। वो एडिट भी करते हैं, वो रिकार्ड भी करते हैं, वो साउंड भी करते हैं, वो डायरेक्ट भी करते हैं। तो वे वहां के  मैनेजर हैं या फिल्म मेकर हैं।
-     आपको उचित नहीं लगता कि एन.एफ.डी.सी. को यह जिम्मेदारी लेना चाहिए थी?
0     नहीं, वे जो कर रहे हैं, मैं उसकी बात कर रहा हूं। जिम्मेदारी कोई भी ले, काम अच्छा करे तो हमें बिल्कुल कोई ऐतराज नहीं एनएफडीसी से कोई दुश्मनी थोड़े ही है। एनएफडीसी मदद करती है, डेवलेपमेंट करती है फिल्म की। लेकिन यही डेवलपमेंट है तो वह चाहे एनएफडीसी हो या कोई हो, उसकी शिकायत होनी चाहिए।
-     मेट्रो का कोई भी कार्यक्रम आपको अच्छा नहीं लगा?
0     आप बताएं? आपको कौन-सा अच्छा लगा। आप मुझे सुझाव दें (मैंने कहा 'देख भाई देख' मुझे बेहतर लगता है। उसे देखने के लिए समय निकालता हूं)। नहीं, देख भाई देख, शुरू के दो-तीन महीने ठीक था। आठ हफ्ते अच्छा लगा। अब वही है। कोई वेरीएशन नहीं है। न चरित्र में कुछ नया है और न स्थिति में। शायद मैं किसी अलग स्तर से देख रहा होऊं। लेकिन आपकी बात सही है, देख भाई देख क्लीन है। आप परिवार के साथ उसे देख सकते हैं।
-     राष्ट्रीय बाल एवं युवा चलचित्र समिति से आप कितने संतुष्ट हैं? आपने उनके साथ काम किया है?
0     पहली बार वहां फिल्में नजर आई हैं। पहली बार उनकी सकारात्मक भूमिका दिखी है। जयाजी जब से दोबारा आई हैं। काफी काम हुआ है। दूरदर्शन पर पहली बार एक स्लॉट बन गया है। जो कभी नहीं था। पहली बार थिएटर में फिल्में प्रदर्शित हुई हैं बीस साल के अर्से में। बीस साल में दो सौ फिल्में बनाई और उसमें से एक भी थिएटर में प्रदर्शित नहीं हुई। यह पहली बार है कि फिल्में थिएटर तक पहुंची हैं। 'अभयम्‌' जैसी फिल्में बनीं, जिसे अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। पहली बार हुआ कि सरकार से सब्सिडी नहीं ली। सरकार पर निर्भर किसी भी सोसायटी ने आज तक ऐसा नहीं कहा। फिल्मों से रिटर्न आए हैं। मैं इस सोसायटी में अमोल पालेकर के जमाने में काम कर चुका हूं। उसके बाद अब इस बार दोबारा हूं।
मैं जानता हूं बीस साल का इतिहास। जब कामिनी जी थीं, शांताराम जी थे, शबाना जी भी थीं। कुछ भी नहीं हुआ। पहली बार कुछ हुआ है और एक साल में एक-डेढ़ करोड़ का फायदा दिखाया गया है। इसका सबसे ज्यादा श्रेय जयाजी को जाता है, क्योंकि जयाजी ने वक्त दिया। वक्त दिया, ऊर्जा दी। दूरदर्शन के समय के लिए अमोल साहब ने भी कोशिश की थी। ईमानदारी पर किसी के संदेह नहीं है। उनके प्रयोग का नतीजा नहीं निकला। शबाना जी ने भी कोशिश की थी। जयाजी पहली बार भी कोशिश कर चुकी थीं। इस बार उन्हें स्लॉट मिला। अब उसे कायम रखने की कोशिश है। अगर यह चलता रहे तो बच्चों को कुछ न कुछ मिलता रहेगा। यह रहना भी चाहिए। अगर दूरदर्शन ने इसे हटाने की कोशिश की तो यह बच्चों के साथ बहुत अन्याय होगा। बच्चे रविवार के दस बजे का इंतजार करते हैं।
-     आगे बच्चों का कौन-सा सीरियल कर रहे हैं?
0     'पोटली बाबा की' का तीसरा पार्ट। चौथे की भी बात चल रही है। पहले दोनों में तो हमने क्लासिक कहानियां लीं। अलीबाबा और अलादीन। सिंंदबाद का भी इरादा था। वर वह नहीं बना। तीसरे में हम बंगाल, राजस्थान आदि राज्यों की लोककथाएं ले रहे हैं। इसके बाद आधुनिक कहानियां लेंगे।
-     पहले 'पोटली बाबा की' फिर 'जंगल की कहानी' दोनों कहीं न कहीं कठपुतलियों और कार्टून की वजह से अधिक लोकप्रिय हुए? क्या बच्चे अभिनेताओं को पसंद नहीं करते?
0     नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। जो लोकप्रिय नहीं हुए, वे अच्छे नहीं बने थे। वरना ऐसा नहीं होता। कई फिल्में हैं बच्चों की। विदेश में तो पूरी परंपरा है। हमारे यहां बनी नहीं वैसी। अभिनय खराब है। की नहीं गई अच्छी तरह।
कार्टून की फिल्में भी जो अच्छी नहीं  बनीं, बच्चों का उनसे कोई लगाव नहीं है। फिल्म अच्छी बनी हो, विचार अच्छे हों तो बच्चों को भी अच्छे लगते हैं। 'जंगल बुक' लोकप्रिय है, क्योंकि बनी अच्छी है। इसकी वजह बिल्कुल यही है कि फिल्म अच्छी होनी चाहिए।
-     लोग जिरह करते हैं कि आप बच्चों के लिए इतने मधुर गीत कैसे लिख लेते हैं?
0     बच्चे देते हैं। बच्चों से मिलती हैं चीजें। बच्चों के साथ रहो, घुलो-मिलो। उनके साथ खेलो-कूदो तो बच्चे आपको बताते हैं। आपके इंस्टिक्ट को वे मांजते हैं। छोटे बच्चों को खेलते समय आप तुतलाने लगते हैं। है न? क्यों तुतलाते हैं? बच्चों के साथ रहोगे तो मालूम हो जाएगा। यदि आप शेक्सपीयर और गालिब बनकर बच्चों से बात करें तो फिर ... फिर तो ज्यादती होगी।
बच्चों की कल्पना को जरा-सा छेड़ दीजिए, बस। फिर खेलते हैं वे आपके गानों के साथ। वे उस तरह से खेलते हैं, जैसे गेंद से खेलते हैं। ये नहीं है कि वे सुर में गा रहे हैं या बेसुरा हो रहे हैं। उन्हें इससे भी मतलब नहीं कि क्या गा रहे हैं? उन्हें कोई बात अच्छी लग जाती है और फिर घूम-घूम कर वे उतना ही बोलते रहते हैं।
तो अगर आप उनके साथ खेल सकें तो सब मिल जाएगा। उनके साथ क्रिकेट खेलते समय आप कपिल की तरह गेंद नहीं फेंक सकते। कितनी पहचान है उनसे आपकी, इस पर सब कुछ निर्भर करता है।
-     बच्चों के लिए कोई फीचर फिल्म बना रहे हैं क्या?
0     पहले बनाई है। बच्चों के लिए नहीं, बचकाना फिल्में बनाई हैं मैंने। मुझे मालूम है बच्चे उन्हें देखकर मजे लेते हैं। 'परिचय' है, 'अंगूर' है, 'किताब' तो थी ही उनके लिए। यों 'किताब' मां-बाप के लिए भी थी। वे क्या हरकतें करते हैं बच्चों के साथ। शुद्घ रूप से बच्चों के लिए नहीं बनाई। आगे बना भी सकता हूं, अभी से क्या कहूं?

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