फिल्‍म समीक्षा : मैरी कॉम

-अजय ब्रह्मात्‍मज 
                  मैरी कॉम के जीवन और जीत को समेटती ओमंग कुमार की फिल्म 'मैरी कॉम' मणिपुर की एक साधारण लड़की की अभिलाषा और संघर्ष की कहानी है। देश के सुदूर इलाकों में अभाव की जिंदगी जी रहे किशोर-किशोरियों के जीवन-आंगन में भी सपने हैं। परिस्थितियां बाध्य करती हैं कि वे उन सपनों को भूल कर रोजमर्रा जिंदगी को कुबूल कर लें। देश में रोजाना ऐसे लाखों सपने प्रोत्साहन और समर्थन के अभाव में चकनाचूर होते हैं। इनमें ही कहीं कोई कोच सर मिल जाते हैं,जो मैंगते चंग्नेइजैंग मैरी कॉम की जिद को सुन लेते हैं। उसे प्रोत्साहित करते हैं। अप्पा के विरोध के बावजूद मां के सपोर्ट से मैरी कॉम बॉक्सिंग की प्रैक्टिस आरंभ कर देती है। वह धीरे-धीरे अपनी चौकोर दुनिया में आगे बढ़ती है। एक मैच के दौरान टीवी पर लाइव देख रहे अप्पा अचानक बेटी को ललकारते हैं। फिल्म की खूबी है कि भावनाओं के इस उद्रेक में यों प्रतीत होता है कि दूर देश में मुकाबला कर रही मैरी कॉम अप्पा की ललकार सुन लेती है। वह दोगुने उत्साह से आक्रमण करती है और विजयी होती है।

फिल्म देखने से पहले आशंका थी कि संजय लीला भंसाली की देख-रेख में कहीं मैरी कॉम की संघर्ष और विजय गाथा सपनीली भव्यता की चपेट में न आ गई हो। संजय की फिल्मों में दुख और युद्ध भी चमकीला होता है। ओमंग कुमार पर संजय का प्रभाव शिल्प में है, लेकिन वह फिल्म के कथ्य पर हावी नहीं होता। संजय ही फिल्म के एडीटर हैं। फिल्म के परिवेश को प्रोडक्शन डिजायनर वनिता ओमंग कुमार ने यथासंभव रियल रखा है। फिल्म का रंग चटकीला नहीं है। मैरी कॉम की दृढ़ता और इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति के लिए मटमैला रंग सटीक है। दृश्यों की संरचना में सजावट से ज्यादा ध्यान वास्तविकता पर दिया गया है। हालांकि 'मैरी कॉम' मणिपुर के परिवेश, माहौल और जिंदगी को करीब और विस्तार से देख पाने की चाहत पूरी नहीं करती, लेकिन झलकियों और बैकड्राप में उसका एहसास हो जाता है। इस फिल्म में पहली बार हिंदी सिनेमा के पर्दे पर मणिपुर के किरदारों को उनके समाज में हम देखते हैं। लेखक-निर्देशक ने मणिपुर मे चल रहे विरोध और आंदोलन को भी नजरअंदाज नहीं किया है। हां, वे उसे फिल्म के पार्श्‍व में ही रखते हैं। निश्चित ही मैरी कॉम का जीवन उनसे अप्रभावित नहीं रहा होगा,लेकिन वह फिल्म का कथ्य नहीं है।

'मैरी कॉम' कई स्तरों पर प्रभावित करती है। फिल्मी भाषा में यह साधारण लडकी की असाधारण कहानी है। गौर करें तो जिंदगी की साधारण घटनाओं से जूझती और अपनी मंजिल की ओर बढ़ती मैरी कॉम अपने फैसलों और व्यवहार में असाधारण हो जाती है। कई व्यक्तियों का उसे सहयोग मिलता है। सबसे बड़ा सहयोग उसे पति की तरफ से मिलता है, जो जुड़वां बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी लेता है और अपनी बीवी को आगे बढऩे की ताकत देता है। पुरुष प्रधान समाज में ऐसे किरदार हैं। उन्हें सही संदर्भ के साथ पेश नहीं किया जाता। शादी और फिर बच्चों का जन्म मैरी कॉम की जिंदगी की बड़ी घटनाएं हैं। बॉक्सिंग पर पूर्णविराम लगाती इन घटनाओं को तोड़ कर मैरी कॉम विजय अभियान जारी रखती है। कई मार्मिक और कमजोर क्षण भी आते हैं, लेकिन वह हाथों से हमेशा के लिए दस्ताने नहीं उतारती। अभ्यास के दौरान बच्चों की देखभाल के लिए वह अवश्य दस्ताने उतारती है। हिंदी फिल्मों ने मां की छवि को त्याग की मूत्र्ति का पर्याय बना दिया है। पर्दे और पर्दे के बाहर फिल्म संसार में इस मां के गुणगान किए जाते हैं। 'मैरी कॉम' भी मां है। वह भी ममत्व के द्वंद्व और दुविधा से गुजरती है, लेकिन अपने प्रोफेशन को तिलांजलि नहीं देती। वह इस चुनौती को कायदे से संभालती है।
'मैरी कॉम' प्रियंका चोपड़ा की फिल्म है। मैरी कॉम की जिंदगी से हम वाकिफ है। उनकी निस्संदेह सराहना करते हैं। देखना यह था कि प्रियंका चोपड़ा उस जुझारु और विजयी बॉकसर को पर्दे पर कैसे जीवित करती हैं। मैरी कॉम और प्रियंका चोपड़ा के चेहरे का नहीं मिलना एक तथ्य है। इस तथ्य को प्रियंका चोपड़ा अपने अभिनय और प्रस्तुति से पाट देती हैं। वह मैरी कॉम के जोश और भावना की तीव्रता को जज्ब करती हैं। फिल्म के आरंभिक दृश्य में ही जब वह पति के साथ प्रसव पीड़ा से गुजरती हुई गली-नुक्कड़ों से होते हुए एक जगह आकर बैठती है और कैमरा उनके चेहरे का क्लोज शॉट लेता है। उस समय वह असह्य पीड़ा में केवल 'उई मां' कहती है और हम पाते हैं कि वह किरदार में ढल चुकी हैं। प्रियंका चोपड़ा ने इस फिल्म के लिए कसरती शरीर के साथ उस हिम्मती मन पर भी मेहनत की है, जो मैरी कॉम के चरित्र को आत्मसात करने के लिए जरूरी था। प्रियंका चोपड़ा अपनी कोशिश में विजयी हैं।

फिल्म के अन्य किरदारों में पति की भूमिका निभा रहे दर्शन कुमार और कोच की भूमिका में आए सुनील थापा अपने अभिनय से 'मैरी कॉम' को विश्वसनीय और प्रभावशाली बनाते हैं। दोनों ने अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है। अप्पा की भूमिका में रॉबिन दास थोड़े नाटकीय हो गए हैं, जबकि मां की भूमिका में रजनी बासुमटराई स्वाभाविक लगी हैं। फेडरेशन के सदस्य के रूप में शक्ति सिन्हा के किरदार के काइयांपन को उभारते हैं।

'मैरी कॉम' प्रेरक फिल्म है। सबसे बड़ी बात कि यह अपने जीवन में ही किंवदंती बन चुकी मैरी कॉम की कहानी है। उनका जीवन और खेल अभी प्रगति पर है। हिंदी में जीवित और सक्रिय हस्ती पर बनी यह पहली बॉयोपिक है।
अवधि: 124 मिनट
**** चार स्‍टार 

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