फिल्‍म समीक्षा : बदलापुर

-अजय ब्रह़मात्‍मज 
श्रीराम राघवन की 'बदलापुर' हिंदी फिल्मों के प्रचलित जोनर बदले की कहानी है। हिंदी फिल्मों में बदले की कहानी अमिताभ बच्चन के दौर में उत्कर्ष पर पहुंची। उस दौर में नायक के बदले की हर कोशिश को लेखक-निर्देशक वाजिब ठहराते थे। उसके लिए तर्क जुटा लिए जाते थे। 'बदलापुर' में भी नायक रघु की बीवी और बच्चे की हत्या हो जाती है। दो में से एक अपराधी लायक पुलिस से घिर जाने पर समर्पण कर देता है और बताता है कि हत्यारे तो फरार हो गए, हत्या उसके साथी जीयु ने की। रघु उसके साथी की तलाश की युक्ति में जुट जाता है। इधर कोर्ट से लायक को 20 साल की सजा हो जाती है। रघु लायक के साथी की तलाश के साथ उस 20वें साल का इंतजार भी कर रहा है, जब लायक जेल से छूटे और वह खुद उससे बदला ले सके।
इस हिस्से में घटनाएं तेजी से घटती हैं। फिल्म की गति धीमी नहीं पड़ती। श्रीराम राघवन पहले ही फ्रेम से दर्शकों को सावधान की मुद्रा में बिठा देते हैं। अच्छी बात है कि टर्न और ट्विस्ट लगातार बनी रहती है। परिवार को खोने की तड़प और बदले की चाहत में रघु न्याय और औचित्य की परवाह नहीं करता। बदले की इस भावना में वह सही और गलत का भेद भूल जाता है। यहां तक कि लायक की दोस्त झिमली को तकलीफ देने से भी वह बाज नहीं आता। नेकी और बदी गड्डमड्ड होने लगती है। श्रीराम राघवन का यही ध्येय भी है। वे अन्य फिल्मों की तरह अपने नायक को दूध का धुला नहीं दिखाते। हम नेक नायक को खल नायक में बदलते देखते हैं। रघु किसी भी सूरत में लायक और उसके साथी से अपनी बीवी और बच्चे की हत्या का बदला लेना चाहता है। इस प्रक्रिया में वह निर्मम होता जाता है।
कहानी पंद्रह साल का जंप लेती है। लायक पंद्रह साल की सजा काट चुका है। पता चलता है कि उसे कैंसर हो चुका है और अब उसकी जिंदगी का एक साल ही बचा है। कैदियों की भलाई के लिए काम कर रहे एक एनजीओ की कार्यकर्ता अकेली जिंदगी बसर कर रहे रघु से मिलती है। वह उससे आग्रह करती है कि अगर वह चाहे तो लायक की रिहाई हो सकती है। लायक का आखिरी साल राहत में गुजर सकता है। रघु पहले मना कर देता है, लेकिन लायक के साथी तक पहुंचने की उम्मीद में वह उसकी रिहाई के लिए तैयार हो जाता है। लायक की रिहाई, दूसरे साथी की पहचान और रघु की पूरी होती दिखती रंजिश के साथ घटनाएं तेज हो जाती हैं। थोड़ी देर के लिए लगता है कि कहानी किरदारों और घटनाओं के बीच उलझ गई है। श्रीराम स्पष्ट हैं। वे फिल्म के क्लाईमेक्स और निष्कर्ष तक बगैर लाग-लपेट के पहुंचते हैं। यहां आगे की घटनाएं और किरदारों के व्यवहार के विस्तार व उल्लेख से दर्शकों की जिज्ञासा बाधित होगी। मजा किरकिरा होगा।
श्रीराम राघवन ने बदले की इस अनोखी कहानी में ग्रे किरदार भी अपना रंग बदलते हैं। 'बदलापुर' सिर्फ बदले की कहानी नहीं है। यह बदले में आए बदलाव की भी कहानी है। सब कुछ बदल जाता है। अच्छा अच्छा नहीं रहता और बुरे का बदला हुआ आचरण सोचने पर मजबूर करता है कि क्या वह सचमुच बुरा था? नैतिकता और आदर्श को परिस्थितियों और मनोभावों के बरक्स देखना होगा। रघु और लायक के व्यवहारों को हम पारंपरिक चश्मे से नहीं आंक सकते। इस फिल्म में गौर करें तो अच्छा बुरा है और बुरा अच्छा है। श्रीराम दोनों किरदारों की जटिलताओं में गहरे घुसते हैं और उनके अंतस को उजागर कर देते हैं। हम जो देखते और पाते हैं, वह हमारे समय के उलझे समाज का द्वंद्व है। फिल्म समाप्त होने के बाद उलझन बढ़ जाती है कि किसे सही कहें और किसे गलत?
मेरे खयाल में फिल्म का कथ्य उस सामान्य दृश्य में है जब लायक अपनी मां से पिता के बारे में पूछता है। मां कहती है-क्यों पुराने चावल मे कीड़े ढ़ूंढ रहा है। मां के पास पिता के बारे में अच्छा बताने के लिए कुछ भी नहीं है। लायक को गहरी चोट लगती है। उसका एहसास जागता है। वह मां को कुछ कहता हुआ निकलता है। उसके बाद की घटना बताना उचित नहीं होगा। फिल्म के अंत में लेखक-निर्देशक ने झिमली के जरिए अनावश्यक ही अपनी बात और लायक की मंशा स्पष्ट कर दी है। वह अव्यक्त रहता तो ज्यादा प्रभावी बात होती।
वरुण धवन अपेक्षाकृत नए एक्टर हैं। उनकी मेहनत जाहिर है। उन्होंने रघु के बदलते भावों को व्यक्त करने में अच्छी-खासी मेहनत की है। दूसरी तरफ नवाजुद्दीन सिद्दीकी की फितरत प्रभावित करती है। वरुण की मेहनत और नवाज की फितरत से 'बदलापुर' रोचक और रोमांचक हुई है। वरुण सधे अभिनेता नवाज के आगे टिके रहते हैं। नवाज हमारे समय के सिद्ध अभिनेता हैं। लायक हमारे मन में एक साथ घृणा और हास्य पैदा करता है। वह शातिर है, लेकिन कहीं भोला भी है। वह हिंदी फिल्मों के पारंपरिक खल चरित्रों की तरह खूंखार नहीं है, लेकिन उसकी कुटिलता से सिहरन होती है। खूंखार तो हमारा नायक हो जाता है जो जान लेने के लिए आवेश में दस हथौड़े मारते हुए हांफने लगता है। यह फिल्म वरुण और नवाज के अभिनय के लिए याद रखी जाएगी। फिल्म में महिला किरदारों को सीमित स्पेस में ही पर्याप्त महत्व दिया गया है। उन्हें अच्छी तरह गढ़ा गया है। पांचों महिला किरदारों ने अपनी भूमिकाओं को संजीदगी से निभाया है। प्रभावशाली दृश्य राधिका आप्टे और हुमा कुरैशी को मिले हैं। यों दिव्या दत्ता, प्रतिमा कण्णन और यामी गौतम लेश मात्र भी कम असरदार नहीं हैं। कुमुद मिश्रा की सहजता और स्वाभाविकता उल्लेखनीय है।
श्रीराम राघवन ने बदले की रोमांचक फिल्म को नया ट्विस्ट दे दिया है।
अवधि: 147 मिनट
चार स्‍टार ****

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