बॉम्बे वेल्वेट : मूल विचार

-अजय ब्रह्मात्‍मज   
आज की मुंबई और तब का बॉम्बे भारत का ऐसा अनोखा शहर है, जहां आजादी के पहले से लोग कुछ करने और पाने की तलाश में आते रहे हैं। नौ द्वीपों के बीच की खाड़ी को पाटकर मुंबई शहर बना। महानगर के विकास में अनके कहानियां दफन हो गईं। छठे-सातवें दशक की मुंबई में एक तरफ मिल मजदूरों का आंदोलन था तो दूसरी तरफ रियल एस्टेट के गिद्धों की नजर हासिल की गई उन खाली जमीनों पर थी, जिन पर गगनचुंबी इमारतें खड़ी होनी थीं। शहर के इस बदलते परिदृश्य में रोजी नरोन्हा और जॉनी बलराज बॉम्बे आते हैं। अपनी सुरक्षा और महत्वाकांक्षा की वजह से वे शहर के गर्भ में चल रहे कुचक्र में फंसते हंै। पांचवे-छठे दशक की मुंबई की पृष्ठभूमि में रोजी और बलराज की इस प्रेम कहानी में अपराध, हिंसा और छल के धागे हैं। दो मासूम दिलों की छटपटाहट भी हैं, जो अपनी खुशी और जिंदगी के लिए शहर के अमीरों के मोहरे बनते हैं। वे बदलते शहर के विकास की चक्की में पिसते हैं।
    मुंबई शहर का रहस्य अनुराग कश्यप को आकर्षित करता रहा है। पहली फिल्म ‘पांच’ से लेकर ‘अग्ली’ तक की यात्रा में वे इस शहर के रहस्य और गुत्थियों को समझने और खोलने की कोशिशें करते रहे हैं। अनुराग के लिए मुंबई वह ‘ब्लैक विडो’ है, जो सभी को आकर्षित करती है। अनुराग के शब्दों में ‘मुंबई मेरे लिए पहला मेट्रोपोलिस शहर था। इस शहर का आज भी मुझ पर असर है।’ ‘बॉम्बे वेल्वेट’ के विचार की बात करें तो 2005-06 में ही अनुराग ने इस फिल्म के बारे में सोचा था। वे बताते हैं, ‘मैंने जेम्स एलरॉय की चार किताबें पढ़ी थीं। तब ‘एलए कांफिडेंशियल’ आने वाली थी। उन दिनों मैं वह हर किताब पढ़ रहा था, जिन पर फिल्में बन रही थीं। ‘एलए कांफिडेंशियल’ फिल्म देखी तो वह किताब से काफी अलग लगी। मुझे लगा कि ऐसी फिल्म बॉम्बे पर भी बनाई जा सकती है। तभी ज्ञान प्रकाश से संपर्क हुआ। हम दोनों ने इस फिल्म के माहौल और विषय के बारे में सोचा। यह वह समय था, जब मैं आरती से अलग हो चुका था। उन्हीं दिनों न्यूयॉर्क में एक जैज सिंगर से मुलाकात हुई, जो दूसरी पीढ़ी की बिहारिन थी। बिहार की एक लड़की लिंकन सेंटर में जैज गा रही थी।उन्होंने मुझे आकर्षित किया। उनसे दोस्ती हुई। उन्होंने ही पश्चिमी और जैज संगीत से मेरा परिचय कराया। मुझ में संगीत भर दिया। उसका असर ‘देव डी’ से दिखता है।  एक साथ यह सब हुआ और ‘बॉम्बे वेलवेट’ ने आकार लेना शुरू कर दिया। ज्ञान प्रकाश ने तब मुझे एक कहानी दी थी-एक कहानी मुंबई की। वहां से यात्रा प्रारंभ हुई। बॉम्बे का एक धड़कता इतिहास रहा है। उसकी धड़कन समय बीतने के साथ मद्धिम हो गई है। ‘बॉम्बे वेल्वेट’ में उसे सुनने की कोशिश की गई है। पोर्ट शहरों की खासियत होती है कि वहां दूसरे शहरों से लोग सपनों की तलाश में आते हैं। पुर्तगालियों ने बॉम्बे को आबाद किया था। धीरे-धीरे यह शहर बढ़ता और बदलता गया। इमारतों की मंजिलें बढ़ती गईं और जिंदगियों के साथ कहानियां भी दबती गईं। अनुराग कहते हैं, ‘हमने कुरेदना शुरू किया तो ढेर सारी कहानियां निकलीं। ‘बॉम्बे वेल्वेट’ उनमें से एक हैं। मेरे पास बॉम्बे की ढेर सारी कहानियां हैं। मैं तीन-चार फिल्में तो बनाऊंगा।’
 - समय,माहौल और कथाभूमि
    ‘बॉम्बे वेल्वेट’ बहुत प्रासंगिक फिल्म है। इस शहर में रिहायश की जंग लगी रहती है। कोई कहता है कि इन्हें रहना चाहिए, उन्हें नहीं रहना चाहिए। कोई कहता है कि ‘मी मुंबईकर’ और बाकी सब बाहरी। जानना जरूरी है कि यह शहर हमेशा से आप्रवासियों का है। मूल निवासी तो केवल कोली थे। मुंबई की खाड़ियों और दलदल जमीनों को पाटकर यह शहर विकसित हो रहा है। आज भी हम झगड़ रहे हैं। झगड़ा तो दशकों पुराना है कि मुंबई वास्तव में किस की है। ‘बॉम्बे वेल्वेट’ में खंबाटा, मिस्त्री और पटेल मिलकर शहर का भविष्य निर्धारित कर रहे हैं। उनके बीच बाहर से आया जॉनी बलराज भी है, जो अपना हिस्सा चाहता है। उसे भी अमीर होना है। अमीर होने की कोशिश में वह अनजाने ही खंबाटा का प्यादा बन जातो है। एहसास होने तक वह खंबाटा के जाल में गहरे धंस चुका होता है। अनुराग कहते हैं, ‘अभी हर कोई चाहता है कि उसके घर के आगे की हरियाली बची रहे। वहीं दूसरी जगह जमीन हड़प रहा होता है। इस कुचक्र में शहर मर चुका है। कहानियों की सांसें घुट गई हैं। मैंने अपनी आंखों से इस शहर को पटते और बढ़ता देखा है। अभी जो हो रहा है, वही 50-60 साल पहले भी हो रहा था। तब दावेदार अलग थे। उनसे जूझने और लड़ने वाले अलग थे। इस शहर की विडंबना देखिए कि जो अव्यवस्थित विकास के खिलाफ था। उसी के नाम पर नरीमन पाइंट बसा दिया गया।’
    ‘बॉम्बे वेल्वेट’ में पांचवें-छठे दशक का वह समय है, जब रियल एस्टेट का घमासान चल रहा था। इस घमासान में राजनीतिज्ञ, एडिटर, पूंजीपति और मिल मालिक शामिल थे। महानगरों का खास लक्षण है कि पुराना निवासी शहर पर अपना हक समझता है। बाद में आए लोग उसे नाजायज लगते हैं। आजादी के साथ देश के विभाजन के समय मुंबई में जेजी से माइग्रेशन हुआ था। उसकी वजह से शहर का मिजाज बदला था। सब कुछ खोकर आए आप्रवासियों ने इस शहर को अपने ढंग से बदला और बसाया। उनके अंदर कुछ कर पाने का थ्राइव था। उनमें से ही एक जॉनी बलराज था। उन दिनों म्यूजिशियन गोवा से आए हुए थे। रोजी उनमें से एक है। अनुराग बताते हैं, ‘बॉम्बे को लेकर मेरा आकर्षण उस दशक के स्थानों, लोगों और उनके बीच बदलते समीकरण में था। मुझे पता चला कि तब हैट पहनने का फैशन था। बॉम्बे के मौसम में हैट पहनना, सिगार पीना,हमेशा सूट में रहना और अंग्रेजी बोलना फैशन में था। प्रोहिबिशन के उस दौर में शराब पीने-पिलाने पर रोक-टोक की वजह से भी कई इंटेरेस्टिंग चीजें होती थीं। ‘आम हिंदुस्तानी’ गीत में अमिताभ भट्टाचार्य ने तब की स्थिति को सटीक शब्दों में अभिव्यक्ति दी है।’

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