फिल्‍म समीक्षा : मसान

-अजय ब्रह्मात्‍मज 
        बनारस इन दिनों चर्चा में है। हिंदी फिल्मों में आरंभ से ही बनारस की छवियां भिन्न रूपों में दिखती रही हैं। बनारस का आध्यात्मिक रहस्य पूरी दुनिया को आकर्षित करता रहा है। बनारस की हवा में घुली मौज-मस्ती के किस्से यहां की गलियों और गालियों की तरह नॉस्टैलजिक असर करती हैं। बनारस की चर्चा में कहीं न कहीं शहर से अनजान प्रेमी उसकी जड़ता पर जोर देते हैं। उनके विवरण से लगता है कि बनारस विकास के इस ग्लोबल दौर में ठिठका खड़ा है। यहां के लोग अभी तक ‘रांड सांढ सीढी संन्यासी, इनसे बचो तो सेवो कासी’ की लोकोक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि बनारस भी समय के साथ चल रहा है। देश के वर्त्तमान प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र है बनारस। हर अर्थ में आधुनिक और समकालीन। प्राचीनता और आध्यात्मिकता इसकी रगों में है। 
           नीरज घेवन की ‘मसान’ इन धारणाओं को फिल्म के पहले फ्रेम में तोड़ देती है। इस फिल्मा के जरिए हम देवी, दीपक, पाठक, शालू, रामधारी और झोंटा से परिचित होते हैं। जिंदगी की कगार पर चल रहे ये सभी चरित्र अपनी भावनाओं और उद्वेलनों से शहर की जातीय, लैंगिक और आर्थिक असमानताओं को व्यक्त करते हैं। लेखक वरुण ग्रोवर और निर्देशक नीरज घेवन ने बड़े यत्न से इन किरदारों को रूप और आकार दिया है। किसी भी किरदार के साथ उनकी अतिरिक्त संलिप्तता नहीं है। ‘मसान’ हिंदी फिल्मों की नायक-नायिका की रुढि को तोड़ती है। यहां सभी किरदार प्रमुख हैं। अपने संदर्भ में उनकी स्वकतं इयत्ता है। आरंभिक सीन में ही डर से आत्महत्या कर लेने वाला पियूष भी इस नरेटिव का जरूरी हिस्सा है। न होकर भी वह फिल्म में मौजूद रहता है। ‘मसान’ का शिल्प पारंपरिक नहीं है। फिल्म पंडितों का दोष नजर आ सकता है, लेकिन यही इसकी खूबी है। कथा का नया विधान नए शिल्प से ही संप्रेषित हो सकता था।
             देवी इस फिल्म की जिद्दी और जीवित धुन है। वह आजाद खयाल और असीमित ख्वाबों की लड़की है। इंटरनेट ने उसे दुनिया से जोड़ रखा है। बगैर मां के पिता के साथ रह रही देवी की जिज्ञासाएं शारीरिक भी हैं। वह इसी प्रयत्न में पकड़ी जाती है। पुलिस अधिकारी कमाई के लिए ‘सेक्स स्कैंडल’ का सफल प्रपंच रचता है। बाप-बेटी को वह सामाजिक लांछन के खौफ में लपेट देता है। देवी इस प्रसंग से ग्लानि में है, लेकिन उसे अपने किए का कोई पछतावा नहीं है। वह मानती है कि उसने कुछ भी गलत नहीं किया है। हां, उसे पियूष के पिता का भी खयाल है। वह उनसे मिल कर उन्हें दुख और दोष से मुक्तत करती है। हिंदी फिल्मों में ऐसे और इतने स्वतंत्र महिला किरदार कम हैं। पिता के साथ के उसके रिश्ते में एक बेबाकपन है। देवी रिश्ते की मर्यादा में रहते हुए भी अपनी सोच जाहिर करने से नहीं हिचकती। देवी की इस यात्रा में हम किसी लड़की के प्रति समाज(पुरुषों) के रवैए से भी हम वाकिफ होते हैं। रिचा चड्ढा ने देवी के दर्प को सही तरीके से निभाया है।
              दीपक के भविष्य के सपनों में जिंदगी से भरपूर शालू आ जाती है। दोनों का अनायास प्रेम होता है। समाज के दो तबकों के इन प्रेमियों को मालूम है कि समाज उनकी शादी स्वीकार नहीं करेगा। उसकी नौबत आने के पहले ही फिल्म नाटकीय मोड़ लेती है। दीपक प्रेम की जगह दर्द में डूब जाता है। शालू का सहज प्रेम ही उसकी जिंदगी को असहज कर देता है। दीपक सामाजिक बेडियों को तोड़ कर आगे निकलता है, लेकिन शालू की यादें उसे जकड़े रहती हैं। जरूरी है कि वह अपनी हैरानी से बाहर निकले, जैसे कि देवी अपनी ग्लानि से निकलती है। दीपक के द्वंद्व को विकी कौशल ने पूरी ईमानदारी और भागीदार के साथ पर्दे पर उतारा है। 
            एक और किरदार है झोंटा। देवी के पिता पाठक और झोंटा के बीच अनोखा रिश्ता है। झोंटा में बालसुलभ दिशाहीनता और उत्सुकता है। वह अपने व्यवहार से घाट की जिंदगी की नई परत खोलता है। लेखक-निर्देशक ने झोंटा की कहानी को समुचित विस्तार नहीं दिया है। तीनों किरदारों की कहानियां एक-दूसरे से अलग होने के बावजूद साथ-साथ चलती हैं और अंत में जुड़ जाती हैं। ‘मसान’ चरित्र प्रधान फिल्म है। सारे चरित्रों की निजी घटनाएं ही आज के बनारस का सामाजिक चित्र रचती हैं।                         
                लेखक-निर्देशक ने बनारस की लोकप्रिय छवियों से फिल्म को दूर रखा है। घाट और श्मशान घाट के प्रसंग हैं। उन्हें फिल्म के कैमरामैन ने असरदार खूबसूरती के साथ दृश्यों का हिस्सा बना दिया है। चिताओं की चट-चट और उड़ती चिंगारियों में लहलह होते चेहरे मृत्यु और नश्वरता के बीच मौजूद जिंदगी की वास्तविकता का आभास देते हैं। ‘मसान’ आज के बनारस की ऐसी कहानी है, जो अपने चरित्रों को लेकर जजमेंटल नहीं है। वह उन्हें स्वभाव के मुताबिक आजाद छोड़ देती है। हर फिल्म में ‘क्या हुआ’ की उम्मीद लगाए बैठे दर्शकों का यह फिल्मी एक पहेली देती है। आप समय और जिंदगी से वाकिफ हैं तो उसे सुलझा लें। 
                 अच्छी बात है कि इस फिल्मी में कोई कलाकार एक्टिंग करता नजर नहीं आता। अनुभवी संजय मिश्रा से लेकर नवोदित विकी कौशल तक संयत और भावपूण हैं। देवी के किरदार में रिचा बहकती तो धार खत्म हो ताजी। शालू को पर्दे पर जीते समय श्‍वेता त्रिपाठी की चमकती शरारती आंखें गहरा और यादगार प्रभाव छोड़ती हैं। संजय मिश्रा के बारे में क्या कहना? उनकी अभिनय शैली परिचित और पड़ोसी किरदारों को पर्दे पर लोने के अवसर दे रही है। विनीत कुमार भी ध्यान खींचते हैं। पंकज त्रिपाठी सहज अभिनय से किरदार के दूषित दिमाग के बाहरी स्वच्छता का अच्छा विलोम पैदा करते है। 
               ‘मसान’ की सबसे बड़ी खूबसूरती किरदारों के आर्गेनिक इमोशन हैं। इन दिनों फिल्मों में हम सभी सिनेमाई इमोशन ही देखते हैं। फिल्मों में सब कुछ इतना घिस-पिट और प्रेडिक्टेबल हो गया है कि मौलिक और आर्गेनिक अविश्वसनीय और असंभव लगता है। नीरज घेवन और वरुण ग्रोवर बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने भावों की मौलिकता को तरजीह दी। वरुण ग्रोवर ने इस फिल्मं के गीत भी लिखे हैं। उनका गीत ‘मन कस्तूरी’ कबीर की उलटबांसी का आधुनिक इस्तेमाल करती है। साहित्य में विपर्यय के सौंदर्य से परिचित रसिक इसे सुन कर आनंदित होंगे। इंडियन ओसन का संगीत फिल्म की थीम के अनुकूल हैं। 
अवधिः 115 मिनट 
स्‍टार- **** चार स्‍टार

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