खुदपसंदी यहां ले आई - स्‍वरा भास्‍कर




स्‍वरा भास्‍कर से यह विस्‍तृत बातचीत है। किसी अभिनेत्री को चंद सवालों और जवाबों में नहीं समझा जा सकता। फिर भी उनकी सोच,समझ और काम की झलक मिलती है। इस सीरिज में और भी इंटरव्‍यू आएंगे....

 -निल बटे सन्नाटा से ही शुरू करते हैं। जीत जैसा ना कहें लेकिन इस फिल्म का लोगों पर असर रहा ही है?इस फिल्म के बारे में बोलते हुए आप अपनी बात पर आएं?

0निल बटे सन्नाटा का ब्रीफ यही है कि जब यह फिल्म मुझे मिली मैं उत्साहित थी। मैंने सोचा कि लीड में टाइटल पार्ट और इतना एक दम नायक जैसा रोल। इससे पहले मेरी दो –तीन फिल्में आ चुकी थी। जहां में सहायक भूमिका का किरदार निभा रही थी। लेकिन जब इस फिल्म के लिए मुझे पता चला कि पंद्रह साल की बच्ची की मां का रोल है, तो हल्की सी कड़वाहट मेरे अंदर पैदा हुई।मैंने सोचा कि यार, पता नहीं क्या करना पड़ेगा हीरोईन बननेके लिए। लीड भी मिल रहा है तो मां के किरदार के लिए। सच कहूं तो मेरी सोच यही थी। पर मैंने जब स्क्रिप्ट पढ़ी तो मुझे लगा कि इस फिल्म को मना नहीं करना चाहिए। मैंने सोचा कि रिस्क है। पर कोई बात नहीं। इस फिल्म के लिए मुझे मना नहीं करना चाहिए। फिल्म शुरू होने के बाद मेरे मन में इस फिल्म को लेकर किसी प्रकार का संदेह नहीं था।मेरे मन में कोई भी दुविधा नहीं थी। फिल्म रिलीज हुई। मेरे ख्याल से हम नसीब वाले थे कि हमें आनंद एल राय और इरोस का प्लेटफार्म मिल गया। ऐसा नहीं है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में छोटी फिल्में नहीं बनती हैं। मेरे ख्याल से आजकल चैलेंज यह होगया है कि छोटी फिल्म को बिना किसी बड़े स्टार के कैसे रिलीज किया जाएं। लोगों तक कैसे पहुंचाया जाएं। दुर्भाग्यवश यह बहुत बड़ा स्टेप है। आजकल लगने लगा है कि फिल्म बनाने से ज्यादा फिल्म रिलीज करना मुश्किल है। हमारी फिल्म के लिए आनंद राय का आना और इरोस का आना बहुत अच्छा साबित हुआ है। हमें खड़े होने के लिए टांगे मिल गई थी। नील बट्टे की बेसिकली यह जर्नी रही। हम सब इस फिल्म को लेकर उत्साहित थे। हमें अपने फिल्म के कंटेंट पर और सिनेमा पर पूरा भरोसा था। हम जिस तरह के रिएक्शन की उम्मीद दर्शकों सेनहीं कर रहे थे. हमें फिल्म के लिए उतनी बेहतरीन प्रतिक्रया मिली। इसकी शुरुआत पोस्टर लांच से हुई।मतलब, जिस तरह की सकारात्मक और प्रेरणात्मक बातें हुई। मैं आज तक किसी एक इंसान से नहीं मिली हूं जिसे फिल्म पसंद नहीं आई। इसके साथ जो लोग फिल्म के समीक्षक हैं, उन्हें भी फिल्म भा गई। उनके दिल को छू गई। इस फिल्म को नंबर को लेकर जो आपस में बातें हुई हैं, ये तो होता है कि फिल्म कितना करेंगी।कितना कमाएगी। यह तो छोटी सी फिल्म थी। आप देखें तो तनु वेड्स मनु रिटर्न्स जैसे फिल्म 2100 स्क्रीन पर रिलीज़ होती है। रांझणा 1500 स्क्रीन पर रिलीज़ होती है। तो नील बट्टे तीन सौ स्क्रीन पर रिलीज हुई। या साढे़ तीन सौ स्क्रीन पर। यह पहले हफ्ते की बात है। दूसरे हफ्ते में और कम हो गई। लेकिन आज सातवे हफ्ते भी यह फिल्म चल रही है। मेरे दोस्ते के माता-पिता हाल ही में थिएटर इस फिल्म को देखने गए थे।उन्होंने कहा कि बुधवार और गुरुवार को पहला शो छोड़कर पूरा शो फुल है। ये एक ही शो लगा है। मेरे ख्याल से मैंने यह उम्मीद नहीं की थी। यह फिल्म बावजूद एक फार्मूला के , डिस्ट्रीब्यूटर के लॉजिक के ,ट्रेड के लॉजिक के यह फिल्म खड़ी हुई है। मैं कह रही हूं कि पैसा उतना ही कमायेंगी,जितनी स्क्रीन और प्रिंट आप रिलीज करोंगे। जितने छोटे पैमाने पर फिल्म रिलीज होगी, आपके कलेक्शन आयेंगे। इतने छोटे पैमाने पर भी आप छह करोड बना रहे हो।दो करोड़ आपका सेटेलाइट पर बिक रहा है। वह भी अकेले खड़े होंगे। आप इन सारी चीजों को परखे तो छोटी फिल्म भी आपको दस करोड़ देरही है। जिसको आपने लीमिटेड रिलीज दी थी।यह अपने आप में बड़ी चीज है। मेरे लिए नंबर से बड़ी चीज यह है कि पचासवें दिन भी लोग फिल्म देख रहे हैं। सात आठ हफ्ते फिल्म अपने दम पर आगे चल रही है।इस उम्मीद पर कि लोग यह फिल्म देखने आ रहे हैं। एक्सिबिटर ने फिल्म लगा रखी है।इरोस तो फोन लगा के फिल्म रखने के लिए कह रहा है। ये मुझे लगा रहा है कि एक्सिबिटर को लग रहा है कि दर्शक आ रहे हैं.फिल्म लगाए रखते हैं। ऐसी फिल्म का हिस्सा होना मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है। 

-कैसा रहा यह सफर?
0 मेरी पहली फिल्म २०१० में माधेलाल कीप वाकिंग रिलीज हुई थी। पिछले छह साल में मेरे लिए नील बट्टे सन्नाटा आज तक की सबसे बड़ी फिल्म होगी। यह मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि  है। मैं अपने आप को बार बार जबरदस्ती बोल रही हूं कि यह तुम्हारी सोलो हिट है। मेरे ख्याल से यह एक इंडस्ट्री है जहां मैं अपने आप को आउट साइडर महसूस करती हूं। हां ,दोस्त अच्छे हैं। सोनम मेरी बहुतअच्छी दोस्त हैं। मैं उससे बहुत प्यार करती हूं। लेकिन काम के हिसाब से अभी भी अपने आप को बाहरी अहसास करती हूं। जैसे लोग गांव से शहर काम खोजने नहीं आते हैं। मैं भी वैसे ही सोचती हूं कि गांव से यहां शहर काम की तलाश में आयी हूं। हम आज भी कोई चकाचौंध से आंखेंचौधिया जाती हैं। यह मैं अपने आप से बार बारकह रही हूं कि यह तुम्हारी सोलो हिट है।तुम भी अब उस लिस्ट में शामिल हो,जहां पीकू, क्वीन मर्दानी और मेरी कॅाम है। कुल मिलाकर यह नील बट्टे सन्नाटाका पूरा मामला है।

-स्वरा जब इंडस्ट्री में आयी तो उससे पहले उनका सिनेमा से कैसा एसोसिएशन था?
0 सर मेरा वैसा ही एसोसिएशन था जैसा भारत में रहने वाले मीडिल क्लास के बच्चे देखते हैं। हम बॅालीवुड से इस देश में बचनहीं सकते हैं। मुझे लगता है कि हम मेरी नानी के जमाने से नहीं बच सकते थे। मेरी नानी भी फिल्मों की उतनी ही शौकीन है जितनी की मेरी मां और में खुद हूं। यह सच में फिल्मों का आल इंडिया अनुभव है। मेरे मामले में भी यही रहा है। हमारे घर में कैबल बहुत देरी से आया। हम चित्रहार और सुपरहीट मुकाबला डीडी के शो से मेरा फिल्मों से राबता हुआ। और जो डीडी पर फिल्में आती थी। मैंने ज्यादातर हिंदी फिल्में ही देखी। इनमें गोविंदा की फिल्में हीरो नंबर वन और आंखें यहसब देखा। हमने हॅाल में बहुत कम फिल्में देखी हैं।हमारे घर में हॅालमें देखने की ऐसी कोई परंपरा नहीं थी। बाहर जाकर देखना कम था।हम आपके है कौन हमारी पहली फिल्म थी।जो हमने हॅाल में देखा था।उसके बाद थोड़ा शुरू हुआ।लेकिन हर हफ्ते वाला सीन नहीं था।
कॉलेज में आकर इंटरनेशनल सिनेमा और दिल्ली में इफी में फिल्में देखी। उससे मैं इंटरनेशनल सिनेमा से जुड़ी।उसमें मेरी मां सिनेमा पढ़ाने लगी। मैं स्कूल में थी, उन्होंने पीएचडी की। कभी कभार उनके लैकचर में बैठ जाते थे। उससे मुझे रिजनल सिनेमा के बारे में पता चला। लेकिन उस तरीके से मैं बहुत ही साधारण सी दर्शक थी। ज्यादातर बॅालीवुड ही देखा।वही देखते हुए मन में विचार आया कि मुझे भी हिंदी फिल्म का हिस्सा बनना है।

-क्या विचार आया?
0 एक तो इसका खुद का कारण है ,खुदपसंदी।अपनी शक्ल सबको अच्छी लगती है।यह शक्ल और बड़ी हो जाएं और बड़ी स्क्रीन पर देखें ।इसे हजारों लोग देखें, तो और अच्छा लगता है। परफ़ॉर्मर के तौर पर मेरे लिए जो चीज़ दिलचस्प थी।  मैंने इसे तुरंत महसूस नहीं किया , वह यह कि मैं समझने लगी कि मेरी ट्रेनिंग शास्त्रीय नृत्य में हुई है। शास्त्रीय नृत्य शैली दर्शकों से दूर है। उसमें भाषा की दूरी है। वह भी पूराने तमिल में। तकनीक इतने हाई हैं कि सबको उसका मतलब नहीं समझ में आता है। फिर एक शारीरिक दूरी है। यह सब पार करने के बाद आप दर्शकों तक पहुंचते हैं। नाट्य शास्त्र के फ्रेम में देखें तो रस बाद में उत्पन्न होता है। मैं फिल्में देखने लगी तो पता चला कि यह कितना अन्तरंग माध्यम है। कैमरे की आंख पास शरीर के पास आ जाती है। इतना पास कि आप सांस भी ले तो वह भी दर्ज हो जाएगा। उसे भी एक्टिंग में शामिल कर लिया जाताहै। मुझे परफ़ॉर्मर के तौर पर यह मोहक लगा।  

-आपको किसी सीन से पता चला?
0 जी नहीं।यह कोई सीन नहीं था।यह मुझे धीरे-धीरे समझ में आ गया। यह वह सबसे बड़ी गलतफहमी थी।जिसकी वजह से मैं मुंबई आयी।  मैं जब यहां आयी।मैंने काम करना शुरू किया। मैंने पायाकि यह कहीं सेभी एक्टर का मीडियम नहीं है। यह निर्देशक का मीडियम है उसके साथ तकनीकी का मीडियम है। एक एक्टर के तौर पर आपके पास इतनी आजादी नहीं है, कि आप एक सीन के पांच टेक लें।उनमें से कौन सा टेक सीन के लिए चुनना है वह आजादी भी आपके पास नहीं है। देखा जाएं तो खुदपसंदी और गलतफहमी के मिश्रण पर मैं मुंबई आ गई। अब मैं अपनी औकाद समझ रही हूं। इस तरीके से मैं मुंबई आयी।यह मेरे लिए कठिन और मजेदार रहा। कभी कभार मैं थकावट महसूस करती हूं। सोचती हूं कि अब बस हो गया। पर सचकहूं तो यहां काम करने की संतुष्टि सबसे अधिक है। अंग्रेजी में कहते हैं ,आर्ट्स फॉर आर्ट्स सेक । यह मुझे नहीं लगता। यहां पर ऐसा नहीं है। हर कलाकार अपनी कला को दर्शकों के सामने रख रहा है।आप कितना ही सच्चा काम कर लों। अब महान गायक तानसेन भी दरबार में सबके सामने गाते थे। मैं किसी के टैलेंट पर कुछ नहीं कह रही हूं। यहां पर बिना दर्शकों के कलाकार नहीं है। दर्शकों की प्रतिक्रया कलाकार के लिए अमूल्य है। फिर हमें लगता है कि करते रहो।थकते रहो।कोई बात नहीं। मुझे लगता है कि मैंने अपने खुद की शर्तो पर काम किया है। मेरा अपना व्यक्तित्व  है। हां।मैंने रेड कारपेट पर चलना । यह सारी चीजें सीखी हैं। इसे रेड कारपेट का सलीका कहते हैं। या ग्लैमर इंडस्ट्री का अपना एक सलीका कह लें। या फिर एक बड़ा लोन लेकर एक बड़ी गाड़ी ले ली। ताकि स्टार की तरह इवेंट पर पहुंच सकूं। पर मेरा स्वभाव नहीं बदला है। मैं अपनी शर्तो पर काम कर रही हूं। कभी सफलता मिलती है कभी असफलता।यह चलता ही रहता है। मैं अपने कामसे खुश हूं। मैं खुश होकर अपने स्पेस में काम कर रही हूं।नील बट्टे ने मुझे आत्मविश्वास दिया है।

-लेकिन एक मीडिल क्लास तबके से पूरी समझ के साथ जो लड़की आ रही हैं। वह अपनी बात रख रही हैं। भले ही उसका इस्तेमाल नहीं कर पा रही हूं। ऐसे में अंदर में एक कनफ्लिक्ट रहता होगा।
0 सर, पहले बहुत कनफ्लिक्ट  था। बहुत गु्स्सा आता था। एक तरह की फिल्में देखकर।फिर ऐसी ही फिल्मों में काम मिलने लगा तो गुस्सा कम हो गया। जब तकहम उस चीज से जुड़ते नहीं हैं, तब तक वही सोच रहती है।जुड़ने के बाद हमें असलीयत समझ में आने लगती है। जैसे हम कहते हैं ना कि यार कितनी खराब फिल्म है। क्या बना दिया है।फिर जब आप फिल्मों में काम करने लगें।उनसे जुड़ने लगे तो आपको अहसास होगा कि यार गंदी फिल्मों में भी मेहनत लगती है। आप थोड़े सोफ्ट हो जाते हो। आपके अंदर संवेदनशील नजरिया हो जाता है। मेरे साथ वह हुआ है। और एक नम्र पन भी होता है।कभी कभार जो समीक्षक होता है, वह हर चीज को ना कर दे। एक निगेटिव कर देने का व्यवहार होता है। वैसे ही आउटसाइडर होने का गुस्सा होता है। जैसे कहते हैं ना अपनी फिल्म के रिलीज के दो तीन हफ्ते पहले से सारी फिल्में अच्छी लगने लगती है।सब सकारात्मक गो जाता है। पर आप जो कह रहे हैं ना जो चीज समझौता की है।

-समझौता नहीं। कई बार हम काम को संतुष्ट रखने के लिए करते हैं। हम जो लिख रहे हैं.पढ़ रहे हैं। वह हम नहीं चाहते हैं। निजी तौर पर हम उस पर विश्वास नहीं करते हैं।पर जब करते हैं तो प्रोफेशनली तरीके से करते हैं.लोगों को भी मजा आने लगता है। हमें लगता है कि शायद हम अपना काम ठीक से कर रहे हैं। लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि यह काम हम नहीं करने आए थे। इस तरह का संघर्ष कभी पैदा होता है क्या?
0 काम को लेकर मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ है।मैंने कभी नहीं सोचा है कि यह करने आए थे क्या।इसकी वजह मेरा फिल्मों का चुनाव रहा है। अगर आप कुल मिलाकर देखें तो मैंने ऐसा कभी कुछ नहीं किया है जिसके लिए मुझे शर्मींदा होना पड़े़। मेरी खराब फिल्मों के लिए भी मेरी यही सोचहै। मेरी कई फिल्में खराब हैं। जो तकनीकी तौर पर खराब हो जो उस तरीके से नहीं निकली।  मैं उनको लेकर भी शर्मीदा नहीं हूं। एक एक्टर जो होता है ना वह हर चीजों से कुछ ना कुछ सीख लेता है। मेरी बुरी फिल्मों ने भी मुझे अच्छा एक्टर बनाने में मदद की है। मुझे याद है कि मेरे पास स्क्रिप्ट आयी थी। इसमें यह था कि सारी गलतियों कामकाजी महिलाओं की ही होती है। मैंने पढ़कर रहा कि ऐसा काम मुझे नहीं करना है। मुझे गलत लग रहा है। कहानी के अनुमान सेमैं सहमत नहीं हूं। एक दूसरी फिल्म मेरे पास आयी थी।इसमें डायलॅाग था कि कुत्ते और बांगलादेशी कहीं पर भी घुस सकते हैं।मैंने कहा कि मैं यह डायलॅाग नहीं बोल सकती हूं। मुझे कहा गया कि आप नहीं बोलों पर कोई और एक्टर बोल देगा। मैने लढ़ कर वह लाइन निकलवा दी। मैंने कहा कि यह लाइन ही गंदी है। किसीको भी नहीं बोलना चाहिए।मतलब उस टाइप का है.जहां मैं बहस कर लेती हूं।राझंणा के समय मेरे जीवन में बहुत बड़ा क्राइसेस आया था। मेरी बहुत लड़ाई हुई अपने करीबी दोस्तों से। जेएनयू के जो मेरे करीबी दोस्त थे, वह मुझे कहने लगे कि तुम यह फिल्म कर कैसे सकती हो। वो उसवक्त थोड़ाऐसा लगा कि क्या सच में मैंने इतनी बड़ी गलती कर दी। बाद में मुझे लगा कि नहीं। फिल्में राजनीतिक मत पर नहीं हो सकती हैं। फिल्मों का काम निजी जीवन के मुद्दें में है। हम जिसे ग्रे कहते हैं ना, उसका विस्तार करना ।
मैं यह मानती हूं।राझंणा मैंने लिखी नहीं है।इस वजह से यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है। एक्टर के तौर पर मेरा काम अपने किरदार को अच्छे से करने का है। लेकिन उसके बाद भी मुझे कहा गयाकि तुम यह फिल्म कैसे कर सकतीथी। मैंने कहा कि मैं करसकती थी। मेरे लिए राझंणा में सबसे जरूरी यह था कि जोया कभी डरी नहीं। मेरे लिए यह सकारात्मकचीज है। आज तक जितनी भी हिंदी फिल्में बनी हैं,उसमें लड़का पीछा कर रहा है और लड़की अंत में लड़के को हां कह देती है।ऐसी कई फिल्में हैं। राझंणा में आपने स्टोकिंग दिखाई है। कम से कम अंत तक अपने मना करने पर डटी रही।लड़की जब अंत में कहती है किमुझे तुमसेप्यार हो रहा है तो कुंदन कहता है कि तुम झूठ कह रही हो। मेरे लिए यह दिलचस्प था।
मैं ना सर अब अपने आप को संतुलित जगह पर महसूस कर रही हूं। मैं इसे बनाएं रखूं यही उम्मीद है।आप ऐसे हालात में कब पहुंचते हैं जहां पर ना चाहतेहुए भी आपको काम करते रहना पड़े।ऐसे हालात तब आते हैं जब आपकी आर्थिक जरुरत हो या आपका सपना इस तरह आप पर हावी हो कि आप सोचें कि कुछ भी करके मुझे स्टार बन जाना है। मेरे अंदर सेअब यह धीरे धीरे जा रहा है। मैंने यह महसूस किया है कि स्टार बनना अपने हाथ में नहीं है।यह मुमकिन नहीं है कि इंडस्ट्री में आयाहुआ हर इंसान सलमान या शाह रूख खान बन जाएं। अच्छा एक्टर बनना अपने हाथमें है।जो अपने हाथ में है, उस काम पर हमें मेहनत करनी चाहिए। जोचीज आपके हाथ में नहीं है उसके लिए खून जलाकर कोई मतलब नहीं है।

-एक टाइम ऐसा आता है कि दर्शकों को आपकी हर बात अच्छी लगने लगती है।आप कुछ गलत कहों तो उसे भी दर्शक सही मानतेहैं।जो कलाकार पॉपुलर हो रहा है , वह इस प्यार की मात्रा को सही तरीके से समझ पाता है. कई लोग गलती करने लगते हैं।
0 मेरे साथ ऐसा हुआ ही नहीं है। मुझे हमेशा दर्शकों का साथ ,उनका प्यार और प्रतिक्रयाएं सकारात्मक तरीके से मेरे पास आती रही हैं। मैं जैसी हूं उस हिसाब से अब चीजें बदली हैं।अब सोशल मीडिया का दायरा बढ़ गयाहै। मेरे साथ यह दिलचस्प हुआ कि जैसे –जैसे मेरी पॉपुलैरिटी  बढ़ी। पहचान मिलने लगी।वैसे ही देश में होने वाले मुद्दें पर कमेंट करने पर मुझे गालियां भी पड़ी। मुझे इस तरह का सामना हुआ है। अब जैसे मैंने किसी राजनीतिक मसले पर ट्विट किया तो हफ्ते भर में मुझे ढेर सारी गालियां सुननी पड़ती हैं। मुझे ऐसी प्रतिक्रिया भी मिली है कि मैं रंगोली का बहुत बड़ा फैन था।अब तुम्हारे कारण नहीं देखूंगा। यह भी सुना है कि मैं तुम्हारे काम से और एक्टिंग से प्यार करता हूं।पर तुम्हारे राजनीतिक रैवेये से नफरत करता हूं।अब इस पर आप कैसेक्या  कर सकते हैं। मुझे कभी बह जाने का मौका ही नहीं मिला। एक जो अहसास है कि सब मुझसे प्यार करते हैं। यह हुआ ही नहीं। मैं ऐसा नहीं कह रही हूं कि लोग मुझे प्यार नहीं करते। मैं यह किसी असुरक्षा की भावना से नहीं कह रही हूं। यह मैं इतनी गालियां खाती है अपने दूसरे पहलू के लिए। मैं उनकी सोच समझती हूं। मैं भी फिल्मी परिवार से नहीं हूं।मैं भी दर्शक हुआ करती थी।मैं जानती हूं कि वह अहसास क्या है।वह अहसास नहीं एक टाल –मटोल है। वह खदु अपनी भावनाएं नहीं समझ पा रहे हैं। हम खुद उन की भावनाएं समझ नहीं पा रहे हैं। उनका जो प्रेम है वह आपके लिए नहीं है। वह आपके छवि के लिए है,जो स्क्रीन पर है। लेकिन आपकी यह छवि केवल स्क्रीन पर है। उसके बाद तो आप जो खुद हो वैसे भी आप नहीं रहते हो।

-वैसे कहना नहीं चाहिए। पर जो फिल्म परिवार से आते हैं, वह इसे जी रहे हैं। आफ स्क्रीन उनकी अपनी कोई छवि नहीं है। ना वह चाहते हैं उस छवि को तोड़ना। वह उसे शो करते हैं। लेकिन जो आउटसाइडर हैं,उन्हें लंबे समय तक उस छवि में रहना होता है। उन्हें हर दर्द महसूस होता है।खैर, यह बहुत लंबा मामला है।
0 मेरे ख्याल से वह कभी नहीं जाएगा।क्योंकि आप वह याद नहीं जाती है। मैं हमेशा बोलती हूं कि कैसे मैंने यह कमाया है मुझे याद है। स्पोर्ट बॉय जो मेरे पीछे खड़ा है वह मेरी कमाई है। वह बंदा जोमेरी चेयर बैठने के लिए खींच रहा है। मुझे आडिशन की समय की बात याद है जब लोग कहा करते थे कि तुम लीड मटैरियल नहीं हो।मुझे लगता है कि यह वाली बातें शाहरुख,अक्षय कुमार और विशाल भरद्वाज को याद होगी। इसके लिए एक्टर होना जरूरी नहीं है। यह सारी चीजें इंडस्ट्री के कलाकार और आउटसाइडर कलाकार में अंतर है। कभी कभी ना मैं स्टार बच्चे को देख कर कहती हूं कि जो पैसा पॅावर इनसाइडर वाला जो विश्वास आता है ना वह अलग चीज है। यह हम आउटसाइडर में है ही नहीं। मुझे इससे कोई मतलब भी नहीं है। मैं आज उनके जैसी एक्टर नहीं हूं क्योंकि मैं वहां पैदा नहीं हुई थी। मैं जहां पैदा हुई थी।वहां मेरी एक किस्म की शिक्षा और सफर रहा है। मैंने नौकरी की है।दस जगह घूमी हूं तब जाकर मैं यहां पर आयी हूं। इस वजह से मैं आज नील बट्टे सन्नाटा का किरदार कर पा रही हूं। मुझे यहां पर वह प्रशंसा मिल रही है।एक्टर के तौर पर मुझे यह बात याद रखनी चाहिए।

-जब आप एक्टर बनने का सोच रही थी। या आयी थी तो उस समय ऐसी कौन सी अभिनेत्रियां थी, जिनको देखकर आप सोच रही थी कि कुछ इनकी तरह मेरा मामला हो जाएं?
0 मैं शाह रूख बनना चाहती थी। मैं कोई अभिनेत्री बनने नहीं आयी थी। मगर मेरे जहन में कोई रोल मॅाडल रहा ही नहीं। मैंने जिनको एडमायर किया है,तब मुझे कोई अभिनेत्री के बारे में पता ही नहीं था।अब मैं देखती हूं तो लगता है कि मेरिल स्ट्रीप और ओरजिनियल मोरे। यह दोनों बहुत ही बेहतरीन अदाकार हैं।पर उम्र के बावजूद काम कर रही हैं। एक साठ साल के ऊपर हैं।एक पचाससाल के ऊपर हैं। पर आज तककाम कर रही हैं। मुझे हॅालीवुड की यह बात अच्छी लगती है.वहां पर भी उम्र का शोषण तंत्र है। जैसे मुंबई में हैं। मैं रोज सुबह उठकर देखती हूं कि मेरे चार बाल सफेद हो गए। या कितने बाल सफेद हुए हैं। इसके अलावा मुंबई में यहां के सिनेमा में। मुझे रानी मुखर्जी।उन्होंने हर तरह का काम किया है।आज से समय में बात करूं तो प्रियंका चोपड़ा हैं। मुझे लगता है कि वह जबर्दस्त महिला हैं। वह आगे बढ़ती ही जा रही हैं। उनको कोई रोक नहीं सकता है। अभिनेत्री की बातकरूं तो मुझे दिव्या दत्ता पसंद हैं। वह हमारे इंडस्ट्री की सबसेबेहतरीन अभिनेत्री हैं। इनके अलावा कोई नहीं था। मेरे मन में माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं वैसी कोई अहसासनहीं था। मैं शाह रुख जैसा बनना चाहती थी। ठीक है।

-हिंदी सिनेमा का जिस तरह से शुरुआत से लेकर अब तक स्तर बढ़ा है। एक तो दर्शकों के साथ होता है दूसरा मेकर्स के साथ होता है।उस हिसाब से देखते हुए हम लोग हिंदी सिनेमा को कहां पा रहे हैं? यह तराजू पर तौलने की बात नहीं है।हम केवल किस रास्ते पर जा रहे हैं? इसके बारे में आप क्या सोचती हैं?
0 मुझे लगता है कि भारतीय सिनेमा के लिए यह बहुत ही दिलचस्प दौर है। जोसत्तर का दशक था। न्यू वेव वह बहुत ही कमाल का पल था। पचास और साठ का दशक गोल्डम पीरियड था। मेरे ख्याल से यह वो चीज नहीं हो रही है। पर वैसा ही नया हिंदी सिनेमा में उत्पन्न हो रहा है। हमारे लिए उत्साहित समय है।आज जिस तरह सेइंडस्ट्री नई कहानी , नए चेहरों के प्रति, नए कहानी कहने के प्रति जो खुली है. वह कमाल की चीज है। नवाज जैसा एक चेहरा अपने खुद के बल पर एक स्टार है। ऐसी कई कहानियां है। हमारे देश में एक सैराट जैसी फिल्म बनी, जोकि एक रिजनल फिल्म है। जो हिंदी सिनेमा का दर्शक है, वह कितनी सारी तादाद में सैराद देखकर आया।ऐसेकई सारे उदाहरण हैं। मुझे रिजनल सिनेमा के बारे में इतना पता नहीं है। तमिल सिनेमा में यही हो रहा है।मराठी सिनेमा की अपनी एक सभ्यता रही है। बाकी सब रिजनल में भी बढ़त हो रही है। मुझे ज्यादा पता नहीं है। इतना ज्ञान नहीं है। यह अच्छी चीज है।अगर हम यह आइडिया छोड़ दे कि हमारी स्पर्धा सौ करोड़ वाली फिल्म से है, या बड़ेस्टार से है।ऐसा सोचे कि हम उन्हें तबाह करदेंगे। पर नहीं।हम क्यों करे ऐसा। वो अपनी इकोनोमी है। वह चलती रहेगी।हमें भारत ने हम जिस किस्म के लोग है.हमारे नेता और अभिनेता लार्जर देन लाइफ लगें।हमारे अंदर वह ख्वाहिश है। भक्ति भाव है। हम शुरू से ही ऐसे ही लोग हैं। वो अपनी जगह पर रहेंगी। और इसे रहना भी चाहिए। यह इंटरटेनमेंट ही है। मैं भी जाती हूं हंस कर आती हूं। हैपी न्यू ईयर में मुझे बहुत मजा आयाथा। मगर आप अगर यह प्रतियोगिता छोड़कर सिनेमा बनाओं और अपने दम पर बनाना चाहिए। मेर ख्याल से निर्माताओं और डिस्ट्रीब्यूटर  में एक विश्वास आ जाएं। यह तभी होगा जब उन्हें दिखाई पड़ेगा कि फिल्में काम करें। फिल्में आठ हैं पर उसके धंधे का एंगल ज्यादा है। पिछले दो साल में सबसे सकारात्मकऔर उत्साहितचीज जोहुई है। वह यह है कि पीकू, एनएच टैन,पीकू ,नीरजा और नील बट्टे स्नाटा जैसी फिल्में। छोटीफिल्में। बडे़ स्टार नहीं हैं। महिला प्रधान फिल्में हैं। इनमें कोई मेल स्टार नहीं है।फीमेल स्टार हैं। यह फिल्में पैसा कमा रही हैं। यह कमाल की बात है।इससे बड़ा उदारहरण नहीं है। हमारा सिनेमा देखने वाले दर्शक बदल रहे हैं। समयबदल रहा है। आज नील बट्टे सन्नाटा अपना पचासवां दिन सेलिब्रेट केवल अपने दम पर कर रही है। इस पर इरोस ने दूसरे हफ्ते के बाद प्रमोशन नहीं हुआ है. पेपर में एड तक दूसरे हफ्ते के बाद नहीं चली हैं। किसी किस्म का निर्माता की तरफ से कोई प्रचार हुआ है। यह शेयर दर्शकों की दिलचस्पी है। मुझे उम्मीद हैकि यह अच्छा समय आगे बढ़ेगा। यह जो सेंसर शिप वाला मामला चला, यह और बढ़िया चीज है।

-आपकी जो कोशिश है उसको सराहा जा रहा है। कई बार लोग समझ नहीं पाते हैं?
0 मुझे ऐसा नहीं लगता सर।मैं नील बट्टे सन्नाटा की बात करूंगी। वह इसलिए भी कि मैं इस फिल्म से जुड़ी रही।हां. लिसेन अमाया मेरी एक और फिल्म आयी थी। उसे इस तरह की प्रतिक्रया नहीं मिली।यह फिल्म भी प्यारी थी। मुझे नहीं पता कि इस फिल्म को नील बट्टे सन्नाटा जैसी प्रशंसा नहीं मिली।मुझे नहीं पता क्यों। मैं इस फिल्म में इतना शामिल नहीं हुई थी। लेकिन उसको भी लोगों ने देखा। यह फिल्म भी दिल्ली में चार हफ्ते चली है। ऐसानहीं है कि छोटी फिल्मों के लिए कठिनाई नहीं है। हमारे लिए चुनौती क्या है। जैसे कहते हैं ना छोटी मछली को बड़ी मछली की जरुरत पड़ती है।लंचबाक्स को कऱण जौहर की आवश्यकता थी।नील बट्टे सन्नाटा को आनंद एल राय की। क्या हम उस कगार पर कभी आयेंगे कि इन छोटी फिल्मों को बड़े मेकर्स की जरुरत नहीं पड़ेगी।

-या इन छोटी फिल्मों को बड़े मेकर्स शुरू से ही साथ में ले लें।
0 यह हो रहा है सर।एकाध फिल्मों के लिए। जैसेकि आनंद सर को देख लीजिए। वह छोटी फिल्मों को कोप कर रहे हैं। हम बदलाव की औऱ हैं। ऐसा नहीं है कि कुछ बदल नहीं रहा है। मेरा कहना है कि सबसे ज्यादा खेल बदलने वाले दर्शक हैं।निर्माता औऱ एक्टर तो कुछ भी नहीं हैं। एक्टर का कुछ नहीं है। मुझे जो फिल्म का प्रस्ताव मिलेगा मैं कर लूंगी। कल को रोहित शेट्टी मुझे फिल्म दें।मैं कूद के कर लूंगी। मुझे वहां से काम नहीं मिल रहा है।मिलता तो उछल कर करदेती है। दर्शकों के दिमाग को बदलने का असर सोशल मीडिया पर है।इसका बहुत बड़ा प्रभाव है।

-छोटी फिल्में केवल शहरों को ही प्रभाव में ला पाता होगा।
0 सर, अभी तो छोटी फिल्में मल्टीप्लेक्स में ही चल रही हैं। आप नील बट्टे का ही कलेक्शन देख लें।

-निल बटे पटना में रिलीज नहीं हुई?
पटना में हुई थी। केवल एक हफ्ते में।

-नहीं पहुंची थी। फेसबुक पर इतना शोर हुआ था। फिल्म वहां रिलीज ही नहीं हुई।
0 अच्छा सर। मैंने देखा ही नहीं। पर सर कलेक्शन आप देख लीजिए। नील बट्टे ने दिल्ली ,मुंबई और बैग्लोर ।खासकर बैंगलोर में भरपूर कलेक्शन किया है।मल्टीप्लेक्स सेहै।

-महेश भट्ट से मैंने कहा था कि आपके पैरों की कालीन नए बच्चों ने छिन ली।तो उन्होंने कहा था कि जब तक इनकी फिल्में जौनपुर में नहीं कमाएंगी।तब तक मुझे कोई खतरा नहीं है।
 0 सही बात है सर।

-वह तो दोनों चीजें समझते हैं। वह अच्छी और बुरी फिल्मों को समझते हैं। दूसरी बात यह है कि आप चाहों तो 0 इसे साबित कर सकते हो। जो नवाज,स्वरा, रिचा ये सारे लोग मैनस्ट्रीम फिल्में में छोटे रोल कर लेते हैं। छोटी फिल्मों में लीड रोल करते हैं। वह चर्चित हो रहेहैं। वह यह निरंतर कर रहे हैं।
सर।निरंतर ही होगा।मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। बिल्कुल महेश भट्टवाली बात है।आपको अगर एक वास्तवित और लंबी उम्र वाला करियर चाहिए तो कमर्शियल स्पेस क्रेक करना ही पड़ेगा।

-बीस साल पहले क्या होता था। स्मिता पाटील एक किस्म की फिल्में किया करती थी। एक फर्क लेकर आती थी। अभी की लड़कियां उस तरीके का अंतर नहीं ला पाती हैं?
0 क्योंकि यह फर्क सिनेमा में नहीं रहा।अब पैरलल सिनेमा वाली कैटगरी नहीं रहा।आपका पीकू एक तरीके से वह ना पैरलल है ना तो कमर्शियल है। अब उस तरह का आर्ट सिनेमा बन नहीं रहा है। ना वो निर्माता रहा। ना वो एनएफडीसी रहा।अब वो नहीं रहा।अब दौर अलग है। मेरे लिए यह बहुत ही सचेत करने वाला चुनाव है। मुझेलगता है कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। दर्शक कमर्शियल फिल्मों के हैं। आज मैं जब अपनी गाड़ी चलाकर डीएन नगर के सिग्नल पर रुकतीहूं तो भीख मांगने वाली बच्ची कहती है कि वो देखों सलमान की बहन।जब कि नील बट्टे सन्नाटा थिएटर में लगी हुई है। यह सच्चाई है। मेरी पहचान यह तो वहां से आ रहा है। यह हमें करते रहना पड़ेगा। अगर मुझे लंबा करियर चाहिए तो। हर वो एक फिल्म मुझे नील बट्टे जैसी फिल्मों की तरह और फिल्में दे रही हैं। एक्टर की तौर पर मैं कभी किसी फिल्म को पढ़कर यह नहीं सोचा है कि यह कमर्शियल है या नहीं। मैंने केवल अपना रोल देखा है। मुझे नहीं पता था कि प्रेम रतन छोटी फिल्म होगी या बड़ी हिट होगी। ये सलमान की फिल्म है या नहीं। मुझे इतना पता था कि यह फिल्म रविवार तक पूरा भारत देख लेगा। इसमें मेरा बहुत अच्छा रोल होगा।

-हां अनुभव के लिए काम आता है।
0 जी सर।अनुभव मिलता है। मैं तो हर तरह का रोल करना चाहती हूं। मैं तो इंतजार कर रही हूं कोई मुझे आइटंम गाना नहीं दे रहा है।

-उसमें भी बुरा क्या है?
0 जी। अविनाश दास कीअनारकली में मेरा अनुभव अच्छा रहा।एक तरह से मुझे आइटम गाना करने को मिला। एक तरीके से बेहतरीन कहानी।इसमें कंटेंट भी है और कमर्शियल एंगल भी है। मेरे लिए बहुत उत्साहित फिल्म है अनारकली।





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