ग्राउंड जीरो की सच्‍चाई - अनारकली




-आशिता दाधिच
कुछ फिल्में तमाचा मारती है, इतना तेज तमाचा की कुछ पलों के लिए आपको दिखाई देना, सुनना सब बन्द हो जाता है, और किसी गहन शून्य में खो जाते हैं आप।
कुछ फिल्में आपको एक अजब दुनिया में धकेल देती है, आप प्रोटोगोनिस्ट के साथ रोना चाहते है, बुक्का फाड़ के रोना और फिर आप उसके साथ हंसना चाहते है, गले लगाना चाहते है।



फिल्म समीक्षा ----


यौन सम्बन्धो के लिए पारस्परिक सहमति यानि म्युचुअल कंसेंट, यह विषय हाल ही में चर्चा में आया तापसी पन्नू और कीर्ति कुल्हारी की फिल्म पिंक के बाद, लेकिन शुक्रवार को रिलीज हुई अविनाश दास की फिल्म अनारकली ऑफ आरा इस विषय को एलिट क्लास के एसी बॉल रूम से गाँव देहातों की चौपाल तक घसीट लाया। यह फिल्म पूरी तरह से स्वरा भास्कर की फिल्म है, या यूं कहें स्वरा ही इस फिल्म का इकलौता मर्द है। फिल्म में संजय मिश्रा और पंकज त्रिपाठी भी है और उन्होंने यह दिखा दिया है कि बेहतरीन अभिनेताओं से लबरेज बेहतरीन अभिनय वाली फिल्मों को दिल छूने के लिए बड़े नाम और बड़े बैनर्स की दरकार नहीं होती।

अनारकली ऑफ़ आरा बिहार के आरा शहर की एक गायिका की कहानी है। गायिका यानी स्वरा भास्कर यानी अनारकली जो है अंग्रेजी में ओवन और हिंदी में देसी तंदूर। ...और स्वरा को देसी तंदूर कहना बेहद जायज नजर आता है जब वो स्टेज पर आग लगा देती है। अनारकली, रंगीला यानी त्रिपाठी की टोली से है और ये टोली जगह जगह भोजपुरी गीत गाती है, अनारकली टोली की जान है, अश्लील और डबल मीनिंग गाने गाती है और स्टेज के साथ साथ लोगों के दिलों पर छा जाती है।
और फिर कहानी में एंट्री होती है कुबेर सिंह विश्वविद्यालय के वीसी धर्मेंद्र चौहान यानि संजय मिश्रा की। चौहान फ़िदा है अनारकली पर, किसी भी तरह उसे पाना चाहता है और फिर एक स्टेज शो के दौरान कुछ ऐसा होता है कि अनारकली को दिल्ली भागना पड़ता है। हालांकि वो लौटती है अपना खोया सम्मान हासिल करने।

फिल्म का सब्जेक्ट काफी आसान है, ग्राउंड जीरो की सच्चाई को फिल्म में बखूबी पिरोया गया हैं। हाँ, लेकिन नायिकाओं को बारिश में भीगते और पेड़ के इर्द गिर्द गाते देखने की इच्छा रखने वालों को झटका लगेगा। फिल्म में अश्लील संवाद है, साथ ही भोजपुरी शब्दों की बहुतायत है, ऐसे में हो सकता है अपर क्लास ऑडियंस फिल्म से जुड़ाव महसूस करे।

फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक कर्ण प्रिय है, गाने भी काफी मस्ती भरे है, हाँ लेकिन इनका टिपिकल हिंदी फ़िल्मी गानों जैसा होना आम दर्शकों को खटक सकता हैं।

संजय मिश्रा ने विलेन के किरदार को पर्दे पर यूं जिया है कि आपको उनसे घृणा होने लगेगी, उनका रोल रूढ़िवादी पुरूष मानसिकता और पितृसत्ता की नँगी तस्वीर उकेर देता हूं। पंकज त्रिपाठी के काम में उनकी मेहनत साफ़ नज़र रही है। स्वरा फिल्म की जान है, तड़कभड़क मेकअप वाली सिंगर हो या, साड़ी में लिपटी निहायत ही मेकअप रहित स्वरा उन्होंने अनारकली के हर शेड को जिया। आखरी शॉट में जब स्वरा चोटी लहरा कर इठला कर चलती है तो यों लगता है मानो सारी दुनिया की औरतें जीत गई हो, उस मर्दानी सोच से जिसे संतुष्टि मिलती है औरतों को अपने से निम्न स्तर पर देख कर।

बतौर डायरेक्टर अविनाश दास का काम प्रशंसनीय हैं। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी शानदार है। एडिटिंग काफी अच्छी है और आप पूरी फिल्म से जुड़ा हुआ महसूस करते है, फिल्म आपको कहीं भी बोर नहीं करती उलटे आप खुद को कहानी में खोया हुआ कहानी का ही एक हिस्सा महसूस करते हैं।

फिल्म की लोकेशन प्रैक्टिकल नजर आती हैं। डायलॉग्स जमीन की सौंधी महक लिए हुए है, कुछ संवाद इतनी गहराई से लिखे गए है कि उस कट्टर पंथी सोच पर एक कस कर तमाचा मारते नजर आते हैं। "रण्डी हो, रण्डी से थोड़ा कम हो या बीवी हो आइंदा पूछ कर हाथ लगाइएगा," जैसे संवाद झिंझोड़ ड़ालते हैं। यहां एक दिक्कत यह भी है कि फिल्म में बोली गई भाषा पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार, झारखण्ड के लोगों को पूरी तरह समझ आएगी परंतु बाकी लोगों को फ्लो में बोले गए वाक्य पूरी तरह ना समझ आएं। फिल्म का प्रमोशन भी काफी कम है, ऐसे में फिल्म माउथ पब्लिसिटी पर डिपेंड करेगी।

बरहाल अगर आपको गम्भीर अभिनय से सजी गम्भीर विषय की फिल्म देखनी है तो अनारकली ऑफ आरा आपके लिए ही है।

स्टार - ****
चार स्टार

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