विनोद खन्ना के बारे में महेश भट्ट


विनोद खन्ना के बारे में महेश भट्ट

सुबह टेलीफोन की घंटी बजी। टीवी के एक रिपोर्टर की आवाज़ थी। उसने विनोद खन्ना साहब के इंतकाल की खबर दी। उसने कहा, आपको स्टू़डियो में ट्रांसफर करती हूं - आप उनके बारे में कुछ बताएंगे? ये ख़बर सुनते ही न जाने क्यूं मैंने फोन बंद कर दिया और हज़ारों यादें एक साथ ज़हन में घूम गयीं।

विनोद खन्ना और मेरा सफर एक साथ ही शुरू हुआ था। "मेरा गांव मेरा देश" में मैं प्रोडक्शन असिस्टेंट था। मुझे वह दिन आज भी याद है, जब राज खोसला साहब ने उनका पहला शाॅट लिया था। डकैत ड्रामा की इस फिल्म में वे अपने साथियों के साथ आते हैं और घोड़े से उतर कर चलते हुए एक दरवाज़े के पास जाते हैं। दरवाज़े को लात मार कर खोलते हैं और अंदर घुस जाते हैं। उस शाॅट के ख़तम होते ही राज खोसला साहब ने कहा कि यह लड़का स्टार है। यह हिंदुस्तान में आग लगा देगा। राज खोसला के उस कथन में उनका अपना सालों का अनुभव बोल रहा था। फिल्म सेट पर स्टार से दूसरे तीसरे असिस्टेंट की दोस्ती हो जाती है। वही उन्हें शाॅट के लिए बुलाता है, शाॅट समझाता है - तो एक अपनापा हो जाता है। पहले ही दिन से हमारा उनके साथ एक रिश्ता बन गया था। उन्होंने कभी ये फीलिंग नहीं दी कि वे स्टेटस में मुझसे बड़े हैं। उन्होंने हमेशा बराबरी की नज़र से मुझे देखा। हमारी दोस्ती खिलती गयी।

उन्ही दिनों एक सज्जन मेरे पास आये। उन्हें निर्माता बनना था। निर्देशक के रूप में मुझे चुनने के साथ फिल्म शुरू करने का आॅफर दिया। यह 1971 की बात है। उस निर्माता को मेरे दोस्त जाॅनी बख्शी ले आये थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या तुम फिल्म डायरेक्ट कर सकते हो? मेरा जवाब था, अगर मैं नहीं बना सकता तो कोई नहीं बना सकता। उन्होंने पूछा, हीरो किसे लोगे? मैंने तपाक से कहा, विनोद खन्ना। मैंने आत्मविश्वास से कह दिया, जबकि मैंने विनोद से कोई बात नहीं की थी। बाद में विनोद खन्ना को बताया और "मुक्ति" नाम की वह फिल्म शुरू हुई। उसमें शत्रुघ्न सिन्हा भी थे, लेकिन उन दिनों जैसा कि होता था - निर्माता पैसे नहीं जुटा सका और तीन दिनों की शूटिंग के बाद फिल्म बंद हो गयी।

उस फिल्म के बंद होने के बावजूद हमारा रिश्ता कायम रहा। इसी बीच उनकी मां का निधन हुआ। विनोद बहुत ही उदास हो गये। मां की मौत ने उन्हें बिल्कुल तोड़ दिया। ज़िंदगी के रहस्यों और गुत्थियों को समझने में उनका समय बीतने लगा। उन दिनों मैं रजनीश के संपर्क में था। मैं अपनी ज़िंदगी की दुविधाओं से निकलने की कोशिश में रजनीश तक पहुंचा था। मेरी फिल्म "मंज़िलें और भी हैं" रीलीज़ होकर फ्लाॅप हो गयी थी। मुझे कोई फिल्म नहीं दे रहा था। दोनों निराश दोस्त रजनीश की आध्यात्मिक दुनिया में सुकून पा रहे थे। हम दोनों रजनीश के पास जाने लगे। फिर उन्होंने भी संन्यास ले लिया और हम दोनों का रिश्ता गाढ़ा होता गया। उन्हीं दिनों हमलोगों ने "लहू के दो रंग" फिल्म बनायी। उसका भी किस्सा अजीब है। उस फिल्म के निर्माता का एक दिन फोन आया कि भई तुम्हें डायरेक्टर के तौर पर लेना है, मुझे बिल्कुल नहीं मालूम कि तुम कैसे डायरेक्टर हो - लेकिन मेरा हीरो विनोद खन्ना चाहता है कि तुम ही डायरेक्ट करो। विनोद खन्ना के कहने से वो फिल्म बन गयी और हमारी दोस्ती और भी अधिक प्रगाढ़ हो गयी।

उनकी फितरत में कुछ ऐसी बातें थीं। वे हमेशा पूछते रहते थे कि ज़िंदगी का माजरा क्या है - हम कहां से आये हैं - हमें जाना कहां है - कर क्या रहे हैं। ऋषि-मुनियों की बातें सिर्फ शब्द हैं या वे कहीं पहुंचाती भी हैं! ऱजनीश के रहते हुए मेरा भ्रम टूट गया था। मैंने उनके कपड़े उतार फेंके थे और माला कमोड में डाल कर फ्लश कर दिया था। विनोद इस बात से बहुत दुखी हुए। उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि भगवान तुमसे बहुत नाराज़ हैं। कह रहे हैं, माला मुझे लाके देता - उसने मेरा अपमान किया है। मैं तो उसे बर्बाद कर दूंगा। दोस्त के रूप में विनोद खन्ना इस बात से बहुत चिंतित थे। क्योंकि तब तक वे रजनीश के गहन प्रभाव में थे। मैंने विनोद को यही कहा था कि मैं सारी दुनिया से झूठ बोल सकता हूं लेकिन खुद से नहीं बोल सकता। मैंने विनोद से कहा - मेरे अंदर ईर्ष्या है। मैं भयभीत हूं। मैं प्रेम करता हूं। रजनीश के शब्दों में मुझे शांति नहीं मिल रही है। अब उन्हें मुझे तबाह करना है तो कर दें। अब मैं उस दुकान पर नहीं लौटूंगा जहां सिर्फ वादे होते हैं और मेरे अंदर कुछ घटता नहीं है। वहां से हमारी सोच में फर्क आया। दोस्ती में दरार आयी। हमारे बीच जो गोंद थी, वह कहीं सूख गयी। हमारे फासले बढ़ते गये। सभी जानते हैं कि विनोद रजनीश के साथ अमरीका चले गये और उनके विश्वसनीय बने। उन्हीं दिनों "शत्रुता" फिल्म के सिलसिले में मैं अमेरिका गया था। वहां मैं विनोद से मिलने गया। विनोद ने मुझे बताया कि रजनीश ने उनसे कहा है कि महेश में वो बात ही नहीं थी - तुममें वह बात है, जिससे तुम शिखर तक जा सकते हो। मैंने फिर से विनोद को समझाया कि तुम्हारा गुरु तुम्हें बोगस कंपटीशन में डाल रहा है। मैं बहुत ही मामूली आदमी हूं। मुझसे कंपटीशन करके तुम अपनी ज़िंदगी बर्बाद मत करो। तुम्हें सुख मिल रहा है तो सुख भोगो।

बाद में रजनीश से विमुख होकर वह लौटे और पूरी शिद्दत से लौटे। उनमें विश्वास था कि वे फिर से खुद को खड़ा कर लेंगे और दुनिया की रेस में शामिल हो जाएंगे। उन्होंने यह किया भी। उनकी इंसाफ़ हिट हुई। मेरे साथ उन्होंने जुर्म की। हम दोनों के बीच याराना तो रहा, लेकिन उसकी तीव्रता कम हो चुकी थी। रजनीश से अलग होने पर भी विनोद उनकी सोच पर अमल करते रहे। हमारे रास्ते अलग हो चुके थे। वे पाॅलीटिक्स की दुनिया में चले गये। उनकी दुनिया बदल गयी। हम दोनों ने मिलने की कई कोशिशें की, लेकिन ज़िदगी की दौड़ में हाथ छूट जाते हैं तो फिर से नहीं मिलते।

बीमार पड़ने पर उनका फोन आया था। आवाज़ में मुस्कुराहट नहीं थी। हालांकि वे कहते रहे कि वे ठीक हैं। लेकिन मैं उनकी आवाज़ की खनक पहचानता था। उनके "ठीक" कहने ने मुझे उदास कर दिया। उनके उस ठीक के पीछे एक पूरा संवाद था, जिसने बहुत कुछ मुझे कह दिया। बाद में भी वे फोन करते थे। उनके फोन देर रात में आया करते थे। मुझे पता है कि अंतिम समय तक उन्होंने शराब नहीं छोड़ी थी। दो-तीन पेग के बाद उन्हें मेरी याद आती थी और हम दोनों के बीच बातें होती थीं। इसके बावजूद हम उस स्पेस में लौट नहीं पाये, जहां एक दूसरे का सहारा बनते।

मेरे लिए विनोद खन्ना, जो बाहरी दुनिया के लिए सुपर स्टार और एक्शन हीरो थे, उनके बहुत अंदर एक मासूम, कमज़ोर और नाज़ुक शख्सीयत रहती थी। वह आजीवन ज़िंदगी के रहस्यों में घिरे रहे और जवाब की तलाश में भटकते रहे। जवाब न उन्हें मिले, न मुझे मिले। वे कहते रहे कि मैं अपने जवाबों से तृप्त हूं और मैं कहता रहा कि मैं अतृप्त हूं। पिछले दिनों आयी उनकी कृशकाय तस्वीर देख कर मैं कांप गया था। दिख गया था कि अब वे कुछ दिनों के मेहमान हैं।

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