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फिल्‍म समीक्षा : हमारी अधूरी कहानी

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स्टार: 3 मोहित सूरी और महेश भट्ट एक साथ आ रहे हों तो एक बेहतरीन फिल्म की उम्मीद की ज सकती है। ‘हमारी अधूरी कहानी’ बेहतरीन की परिधि में आते-आते रह गई है। यह फिल्मी संवादों, प्रेम के सिचुएशन और तीनों मुख्य कलाकारों के जबरदस्त अभिनय के लिए देखी जा सकती है। फिल्म में आज के ट्रेंड के मुताबिक औरतों की आजादी की भी बातें हैं। पुरूष दर्शकों को वसुधा का गुस्सा कुछ ज्यादा लग सकता है, लेकिन सच तो यही है कि पति नामक जीव ने परंपरा और मर्यादा के नाम पर पत्नियों को सदियों से बांधा और सेविका बना कर रख लिया है। फिल्म के संवाद के लिए महेश भट्ट और शगुफ्ता रफीक को बधाई देनी होगी। अपने पति पर भड़क रही वसुधा अचानक पति के लिए बहुवचन का प्रयोग करती है और ‘तुमलोगों’ संबोधन के साथ सारे पुरुषों को समेट लेती है।   वसुधा भारतीय समाज की वह अधूरी औरत है, जो शादी के भीतर और बाहर पिस रही है। वह जड़ हो गई है, क्योंकि उसकी भावनाओं की बेल को उचित सपोर्ट नहीं मिल पा रहा है। वह कामकाजी और कुशल औरत है। वह बिसूरती नहीं रहती। पति की अनुपस्थिति में वह अपने बेटे की परवरिश करने के साथ खुद भी जी रही है। आरव के संपर्क मे

फिल्म समीक्षा : मिस्टर एक्स

स्टार:   डेढ़ स्टार विक्रम भट्ट निर्देशित इमरान हाशमी की 'मिस्टर एक्स' 3डी फिल्म है। साथ ही एक नयापन है कि फिल्म का नायक अदृश्य हो जाता है। यह नायक अदृश्य होने पर भी अपनी प्रेमिका को चूमने से बाज नहीं आता, क्योंकि पर्दे पर इमरान हाशमी हैं। इमरान हाशमी की कोई फिल्म बगैर चुंबनों के समाप्त नहीं होती। विक्रम भट्ट 3डी तकनीक में दक्ष हैं। वे अपनी फिल्में 3डी कैमरे से शूट भी करते हैं, लेकिन इस तकनीकी कुशलता के बावजूद उनकी 'मिस्टर एक्स' में कथ्य और निर्वाह की कोई नवीनता नहीं दिखती। फिल्म पुराने ढर्रे पर चलती है। रघु और सिया एटीडी में काम करते हैं। दोनों अपने विभाग के कर्मठ अधिकारी हैं। एक-दूसरे से प्रेम कर रहे रघु और सिया शादी करने की छट्टी ले चुके हैं। उन्हें बुलाकर एक खास असाइनमेंट दिया जाता है। कर्तव्यनिष्ठ रघु और सिया पीछे नहीं हटते। वे इस असाइनमेंट में एक कुचक्र के शिकार होते हैं। स्थितियां ऐसी बनती हैं कि दोनों एक-दूसरे के खिलाफ हो जाते हैं। अदृश्य हो सकने वाला नायक अब बदले पर उतारू होता है। वह स्पष्ट है कि कानून उसकी कोई मदद नहीं कर सकता, इसलिए

फिल्‍म समीक्षा : राजा नटवरलाल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    ठगों के बादशाह नटवरलाल उर्फ मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव के नाम-काम को समर्पित 'राजा नटवरलाल' कुणाल देशमुख और इमरान हाशमी की जोड़ी की ताजा फिल्म है। दोनों ने इसके पहले 'जन्नत' और 'जन्नत 2' में दर्शकों को लूभाया था। इस बीच इमरान हाशमी अपनी प्रचलित इमेज से निकल कर कुछ नया करने की कोशिश में अधिक सफल नहीं रहे। कहा जा रहा है कि अपने प्रशंसकों के लिए इमरान हाशमी पुराने अंदाज में आ रहे हैं। इस बीच बहुत कुछ बदल चुका है। ठग ज्यादा होशियार हो गए हैं और ठगी के दांव बड़े हो गए हैं। राजा बड़ा हाथ मारने के चक्कर में योगी को अपना गुरु बनाता है। एक और मकसद है। उसे अपने बड़े भाई के समान दोस्त राघव के हत्यारे को सबक भी सिखाना है। उसे बर्बाद कर देना है। कहानी मुंबई से शुरू होती है और फिर धर्मशाला होते हुए दक्षिण अफ्रीका के शहर केप टाउन पहुंचती है। इमरान हाशमी भी योगी की मदद से राजा से बढ़ कर राजा नटवरलाल बनता है। वह अपना नाम भी मिथिलेश बताता है। फिल्म में ठगी के दृश्य या तो बचकाने हैं या फिर अविश्वसनीय। फिल्म की पटकथा सधी और कसी हुई नहीं है। स

फिल्‍म समीक्षा : एक थी डायन

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यह किस्सा है। यह खौफ है। यह विभ्रम है। यह हॉरर फिल्म है। यह सब का मिश्रण है। क्या है 'एक थी डायन' एकता कपूर और विशाल भारद्वाज की प्रस्तुति एक थी डायन के निर्देशक कन्नन अय्यर हैं। इसे लिखा है मुकुल शर्मा और विशाल भारद्वाज ने। उन्होंने भारतीय समाज में प्रचलित डायन कथा को नया आयाम दिया है। मुख्यधारा के चर्चित कलाकारों को प्रमुख भूमिकाएं सौंप कर उन्होंने दर्शकों को भरोसा तो दे ही दिया है कि यह हिंदी में बनी आम हॉरर फिल्म नहीं है। हां,इसमें इमरान हाशमी हैं। उनके साथ कोंकणा सेन शर्मा,कल्कि कोइचलिन और हुमा कुरेशी भी हैं। संयोग ऐसा हुआ कि इस फिल्म का क्लाइमेक्स मैंने पहले देख लिया और फिर पूरी फिल्म देखी। इसके बावजूद फिल्म में रुचि बनी रही और मैं उस क्षण की प्रतीक्षा करता रहा जहां फिल्म चौंकाती है। अप्रत्याशित घटनाएं हमेशा रोचक और रोमांचक होती हैं। फिल्म जादू“र बोबो इमरान हाशमी के मैजिक शो से आरंभ होती है। बोबो को मतिभ्रम होता है कि उसे कोई अनदेखी शक्ति तंग कर रही है। तार्किक जादूगर अपने मनोवैज्ञानिक मित्र की मदद लेता है। प्निोसिस के जरिए अपने अतीत में पहुंचने पर उसे

फिल्‍म समीक्षा : राज 3

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  डर के आगे मोहब्बत है   -अजय ब्रह्मात्मज      अच्छी बात है कि इस बार विक्रम भट्ट ने 3डी के जादुई प्रभाव को दिखाने के बजाए एक भावनापूर्ण कहानी चुनी है। इस कहानी में छल-कपट, ईष्र्या, घृणा, बदला और मोहब्बत के साथ काला जादू है। काला जादू के बहाने विक्रम भट्ट ने डर क्रिएट किया है, लेकिन दो प्रेमी (खासकर हीरो) डर से आगे निकल कर मोहब्बत हासिल करता है। कल तक टॉप पर रही फिल्म स्टार सनाया शेखर अपने स्थान से फिसल चुकी हैं। संजना कृष्ण पिछले दो साल से बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड ले रही हैं। सनाया किसी भी तरह अपनी खोई हुई पोजीशन हासिल करना चाहती है। पहले तो भगवान और मंत्र के जरिए वह यह कोशिश करती है। सफल नहीं होने पर वह काला जादू और तंत्र के चक्कर में आ जाती है। काला जादू राज-3 में एक तरकीब है डर पैदा करने का, खौफ बढ़ाने का। काला जादू के असर और डर से पैदा खौफनाक और अविश्वसनीय दृश्यों को छोड़ दें, तो यह प्रेमत्रिकोण की भावनात्मक कहानी है। फिसलती और उभरती दो अभिनेत्रियों के बीच फंसा हुआ है निर्देशक आदित्य अरोड़ा। वह सनाया के एहसानों तले दबा है। वह पहले तो उसकी मदद करता है, लेक

खुद ही तोड़ दी अपनी इमेज-इमरान हशमी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  इमरान हाशमी पर महेश भट्ट की टिप्पणी     (आजादी के बाद पूरे देश में औपनिवेशिक मानसिकता के कुछ ब्राउन समाज के हर क्षेत्र में एक्टिव हैं। वे हर क्षेत्र में मानक तय करते हैं। उनमें से कुछ हिंदी फिल्मों में भी हैं। वे बताते हैं कि किस तरह का हीरो होना चाहिए या अच्छा होता है? ऐसे ब्राउन साहब को इमरान हाशमी अच्छा नहीं गलता था। वे हमेशा उसकी निंदा करते थे। वह अपनी तरह की फिल्मों से खुश था। दर्शकों के एक तबके में पहले से लोकप्रिय था।     पहली ही फिल्म में डायरेक्टर के साथ काम करते देखते समय मुझे उनमें कुछ खास बात लगी। मैंने उसे सलाह दी कि तुम्हें कैमरे के सामने होना चाहिए। वह बहुत नर्वस था। बाद में उसने ‘मर्डर’, ‘गैंगस्टर’ और ‘जन्नत’ जैसी फिल्में कीं। गिरते-पड़ते उसने सीखा और अपनी एक जगह बनायी। अपनी जगह बनाने के बाद उसने हिम्मत दिखायी और ऑफबीट फिल्मों के लिए राह बदली। तब मैंने उसे रोका था। हिंदी फिल्मों में अधिकांश हीरो अपना चेहरा नहीं बदलना चाहते। अपनी शक्ल बिगाडऩा आसान फैसला नहीं होता। इमरान हाशमी ने पहले ‘वंस अपऑन अ टाइम इन मुंबई’ और फिर ‘शांघाई’ में यह किया। उसने उनकी

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई

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  जघन्य राजनीति का खुलासा -अजय ब्रह्मात्‍मज शांघाई दिबाकर बनर्जी की चौथी फिल्म है। खोसला का घोसला, ओय लकी लकी ओय और लव सेक्स धोखा के बाद अपनी चौथी फिल्म शांघाई में दिबाकर बनर्जी ने अपना वितान बड़ा कर दिया है। यह अभी तक की उनकी सबसे ज्यादा मुखर, सामाजिक और राजनैतिक फिल्म है। 21वीं सदी में आई युवा निर्देशकों की नई पीढ़ी में दिबाकर बनर्जी अपनी राजनीतिक सोच और सामाजिक प्रखरता की वजह से विशिष्ट फिल्मकार हैं। शांघाई में उन्होंने यह भी सिद्ध किया है कि मौजूद टैलेंट, रिसोर्सेज और प्रचलित ढांचे में रहते हुए भी उत्तेजक संवेदना की पक्षधरता से परिपूर्ण वैचारिक फिल्म बनाई जा सकती हैं। शांघाई अत्यंत सरल और सहज तरीके से राजनीति की पेंचीदगी को खोल देती है। सत्ताधारी और सत्ता के इच्छुक महत्वाकांक्षी व्यक्तियों की राजनीतिक लिप्सा में सामान्य नागरिकों और विरोधियों को कुचलना सामान्य बात है। इस घिनौनी साजिश में नौकशाही और पुलिस महकमा भी चाहे-अनचाहे शामिल हो जाता है। दिबाकर बनर्जी और उर्मी जुवेकर ने ग्रीक के उपन्यासकार वसिलिस वसिलिलोस के उपन्यास जी का वर्तमान भारतीय संदर्भ में रूपांत

दिबाकर बनर्जी की पॉलिटिकल थ्रिलर ‘शांघाई’

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज   हर फिल्म पर्दे पर आने के पहले कागज पर लिखी जाती है। लेखक किसी विचार, विषय, मुद्दे, संबंध, भावना, ड्रामा आदि से प्रेरित होकर कुछ किरदारों के जरिए अपनी बात पहले शब्दों में लिखता है। बाद में उन शब्दों को निर्देशक विजुअलाइज करता है और उन्हें कैमरामैन एवं अन्य तकनीशियनों की मदद से पर्दे पर रचता है। ‘शांघाई’ दिबाकर बनर्जी की अगली फिल्म है। उन्होंने उर्मी जुवेकर के साथ मिल कर इसका लेखन किया है। झंकार के लिए दोनों ने ‘शांघाई’ के लेखन के संबंध में बातें कीं।   पृष्ठभूमि  उर्मी - ‘शांघाई’ एक इंसान की जर्नी है। वह एक पाइंट से अगले पाइंट तक यात्रा करता है। दिबाकर से अक्सर बातें होती रहती थीं कि हो गया न ़ ़ ़ समाज खराब है, पॉलिटिशियन करप्ट हैं, पढ़े-लिखे लोग विवश और दुखी हैं। ऐसी बातों से भी ऊब हो गई है। आगे क्या बात करती है?  दिबाकर - अभी तो पॉलीटिशयन बेशर्म भी हो गए हैं। वे कहते हैं कि तुम ने मुझे बुरा या चोर क्यों कहा? अभी अन्ना आंदोलन में इस तरह की बहस चल रही थी। ‘शांघाई’ में तीन किरदार हैं। वे एक सिचुएशन में अपने ढंग से सोचते और कुछ करते हैं। ‘लव सेक्स और ध

रियल ड्रामा और पॉलिटिक्स है ‘शांघाई’ में

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज अपनी चौथी फिल्म ‘शांघाई’ की रिलीज तैयारियों में जुटे बाजार और विचार के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी यह फिल्म दिल्ली से बाहर निकली है। उदार आर्थिक नीति के के देश में उनकी फिल्म एक ऐसे शहर की कहानी कहती है, जहां समृद्धि के सपने सक्रिय हैं। तय हआ है कि उसे विशेष आर्थिक क्षेत्र के रूप में विकसित किया जाएगा। राज्य सरकार और स्थानीय राजनीतिक पार्टियों ने स्थानीय नागरिकों को सपना दिया है कि उनका शहर जल्दी ही शांघाई बन जाएगा। इस राजनीति दांवपेंच में भविष्य की खुशहाली संजोए शहर में तब खलबली मचती है, जब एक सामाजिक कार्यकर्ता की सडक़ दुर्घटना में मौत हो जाती है। ज्यादातर इसे हादसा मानते हैं, लेकिन कुछ लोगों को यह शक है कि यह हत्या है। शक की वजह है कि सामाजिक कार्यकर्ता राजनीतिक स्वार्थ के तहत पोसे जा रहे सपने के यथार्थ से स्थानीय नागरिकों को परिचित कराने की मुहिम में शामिल हैं। माना जाता है कि वे लोगों को भडक़ा रहे हैं और सपने की सच्चाई के प्रति सचेत कर रहे हैं।    दिबाकर बनर्जी राजनीतिक पृष्ठभूमि की फिल्म ‘शांघाई’ में हमें नए भारत से परिचित कराते हैं। यहां

साथ आना अभय देओल और इमरान हाशमी का

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  -अजय ब्रह्मात्मज फिल्म देखने के बाद दिबाकर बनर्जी के इस अहम फैसले का परिणाम नजर आएगा। फिलहाल अभय देओल और इमरान हाशमी का एक फिल्म में साथ आना दर्शकों को हैरत में डाल रहा है। फिल्म के प्रोमो से जिज्ञासा भी बढ़ रही है। कुछ धमाल होने की उम्मीद है। अभय देओल हिंदी फिल्मों के विशिष्ट अभिनेता हैं। इमरान हाशमी हिंदी फिल्मों के आम अभिनेता हैं। दोनों के दर्शक और प्रशंसक अलग हैं। दिबाकर बनर्जी ने ‘शांघाई’ में दोनों को साथ लाकर अपनी कास्टिंग से चौंका दिया है।     ‘सोचा न था’ से अभय देओल की शुरुआत हुई। देओल परिवार के इस हीरो की लांचिंग पर किसी का ध्यान भी नहीं गया। उनके पीठ पीछे सनी देओल के होने के बावजूद फिल्म की साधारण रिलीज हुई। फिर भी अभय देओल ने पहले समीक्षकों और फिर दर्शकों का ध्यान खींचा। कुछ फिल्मों की रिलीज के पहले से ही चर्चा रहती है। ऐसी फिल्म रिलीज के बाद ठंडी पड़ जाती हैं। जिन फिल्मों पर उनकी रिलीज के बाद निगाह जाती है, उन्हें दर्शक और समीक्षकों की सराहना बड़ी कर देती है। ‘सोचा न था’ ऐसी ही फिल्म थी। इस फिल्म ने इंडस्ट्री को तीन प्रतिभाएं दीं - अभय देओल, आएशा और इम्तियाज अली।