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मेरी हर प्‍लानिंग रही सफल : पिया बाजपेयी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिया बाजपेयी ने करिअर की शुरूआत बतौर डबिंग आर्टिस्‍ट की। मकसद था कि जेब खर्च निकलता रहे। उन्‍हीं दिनों में किसी की सलाह पर अपनी तस्‍वीरें सर्कुलेट कीं तो प्रिंट ऐड मिलने लगे। यह तकरीबन आठ साल पहले की बात है। सिलसिला बढ़ा तो कमर्शियल ऐड मिले और आखिरकार दक्षिण भारत की एक फिल्‍म का ऑफर मिला। यह ‘ खोसला का घोंसला ’ की रीमेक फिल्‍म थी।   दक्षिण में पहली फिल्‍म रिलीज होने के पहले ही एक और बड़ी फिल्‍म मशहूर स्‍टार अजीत के साथ मिल गई। यह ‘ मैं हूं ना ’ की रीमेक थी। फिर तो मांग बढ़ी और फिल्‍में भी। पिया की दक्षिण की चर्चित और हिट फिल्‍मों में ‘ को ’ और ‘ गोवा ’ शामिल हैं। दक्षिण की सक्रियता और लोकप्रियता के बीच पिया स्‍पष्‍ट थीं कि उन्‍हें एक न एक दिन हिंदी फिल्‍म करनी है। बता दें कि पिया बाजपेयी उत्‍तर प्रदेश के इटावा शहर की हैं। सभी की तरह उनकी भी ख्‍वाहिश रही कि उनकी फिल्‍में उनके शहर और घर-परिवार के लोग देख सकें। पिया पूरे आत्‍मविश्‍वास से कहती हैं, ’ सब कुद मेरी योजना के मुताबिक हुआ और हो रहा है। कुछ लोगों की प्‍लानिंग पूरी नहीं होती। मैंने जो सोचा,वही हो

फिल्‍म समीक्षा : मिर्जा़ जूलिएट

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फिल्‍म रिव्‍यू दबंग जूली की प्रेमकहानी मिर्जा जूलिएट -अजय ब्रह्मात्‍मज जूली शुक्‍ला उर्फ जूलिएट की इस प्रेमकहानी का हीरो रोमियो नहीं,मिर्जा है। रोमियो-जूलिएट की तरह मिर्जा-साहिबा की प्रेम कहानी भी मशहूर रही है। हाल ही में आई ‘ मिर्जिया ’ में उस प्रेमकहानी की झलक मिली थी। ‘ मिर्जा जूलिएट ’ में   की जूलिएट में थोड़ी सी सा‍हिबा भी है। राजेश राम सिंह निर्देशित ‘ मिर्जा जूलिएट ’ एक साथ कई कहानियां कहने की कोशिश करती है। जूली शुक्‍ला उत्‍तर प्रदेश के मिर्जापुर में रहती है। दबंग भाइयों धर्मराज,नकुल और सहदेव की इकलौती बहन जूली मस्‍त और बिंदास मिजाज की लड़की है। भाइयों की दबंगई उसमें भी है। वह बेफिक्र झूमती रहती है और खुलआम पंगे लेती है। लड़की होने का उसे भरपूर एहसास है। खुद के प्रति भाइयों के प्रेम को भी वह समझती है। उसकी शादी इलाहाबाद के दबंग नेता पांडे के परिवार में तय हो गई है। उसके होन वाले पति राजन पांडे कामुक स्‍वभाव के हैं। वे ही उसे जूलिएट पुकारते हैं। फोन पर किस और सेक्‍स की बातें करते हैं,जिन पर जूलिएट ज्‍यादा गौर नहीं करती। अपने बिंदास जीवन में लव,सेक्‍स और रो

फिल्‍म समीक्षा : लाल रंग

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माटी की खुश्‍बू और रंग -अजय ब्रह्मात्‍मज सय्यद अहमद अफजाल की ‘ लाल रंग ’ को नजरअंदाज या दरकिनार नहीं कर सकते। हिंदी की यह ठेठ फिल्‍म है,जिसमें एक अंचल अपनी भाषा,रंग और किरदारों के साथ मौजूद है। फिल्‍म का विषय नया और मौजूं है। पर्दे परदिख रहे नए चेहरे हैं। और साथ ही पर्दे के नीछे से भी नई प्रतिभाओं का योगदान है। यह फिल्‍म अनगढ़,अधपकी और थोड़ी कच्‍ची है। यही इसकी खूबी और सीमा है,जो अंतिम प्रभाव में कसर छोड़ जाती है। अफजाल ने दिल्‍ली से सटे हरियाणा के करनाल इलाके की कथाभूमि ली है। यहां शंकर मलिक है। वह लाल रंग के धंधे में है। उसके घर में एक पोस्‍टर है,जिस पर सुभाष चंद्र बोस की तस्‍वीर है। उनके प्रसिद्ध नारे में आजादी काट कर पैसे लिख दिया गया है- तुम मुझे खून दो,मैं तुम्‍हें पैसे दूंगा। शंकर मलिक अपने धंधे में इस कदर लिप्‍त है कि उसकी प्रेमिका परिवार के दबाव में उसे छोड़ जाती है। नृशंस कारोबार में होने के बावजूद वह दोस्‍तों की फिक्र करता है। इस कारोबार में वह एक नए लड़के(अक्षय ओबेराय) को शामिल करता है। धंधे के गुर सिखता है,जो आगे चल कर उसका गुरू बनने की कोशिश करता है।