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फ़िल्म समीक्षा:बिल्लू

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मार्मिक और मनोरंजक -अजय ब्रह्मात्मज शाहरुख खान की कंपनी रेड चिलीज ने प्रियदर्शन की प्रतिभा का सही उपयोग करते हुए बिल्लू के रूप में मार्मिक और मनोरंजक फिल्म पेश की है। विश्वनाथन की मूल कहानी लेकर मुश्ताक शेख और प्रियदर्शन ने पटकथा विकसित की है और मनीषा कोराडे ने चुटीले और सारगर्भित संवाद लिखे हैं। लंबे समय के बाद किसी फिल्म में ऐसे प्रासंगिक और दृश्य के अनुकूल संवाद सुनाई पड़े हैं। बिल्लू सच और सपने को मिलाती भावनात्मक कहानी है, जो एक स्तर पर दिल को छूती और आंखों को नम करती है। इस फिल्म का सच है बिल्लू, जिसे इरफान खान ने पूरे संयम से निभाया है। फिल्म का सपना साहिर खान है, जो शाहरुख खान की तरह ही अतिनाटकीय है। सच, सपना और कल्पना का घालमेल भी किया गया है। साहिर खान के रोल में शाहरुख खान को लेना और शाहरुख खान की अपनी फिल्मों को साहिर खान की फिल्मों के तौर पर दिखाना एक स्तर पर उलझन और भ्रम पैदा करता है। बिल्लू में ऐसी उलझन अन्य स्तरों पर भी होती है। फिल्म की कहानी उत्तरप्रदेश के बुदबुदा गांव में घटित होती है। उत्तर प्रदेश के गांव में नारियल के पेड़, बांध और पहाड़ एक साथ देखकर हैरानी

फ़िल्म समीक्षा:जुगाड़

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-अजय ब्रह्मात्मज निर्माता संदीप कपूर ने चाहा होगा कि उनकी जिंदगी के प्रसंग को फिल्म का रूप देकर सच, नैतिकता और समाज में प्रचलित हो रहे जुगाड़ को मिलाकर दर्शकों को मनोरंजन के साथ संदेश दिया जाए। जुगाड़ देखते हुए निर्माता की यह मंशा झलकती है। उन्होंने एक्टर भी सही चुने हैं। सिर्फ लेखक और निर्देशक चुनने में उनसे चूक हो गई। इरादे और प्रस्तुति के बीच चुस्त स्क्रिप्ट की जरूरत पड़ती है। उसी से फिल्म का ढांचा तैयार होता है। ढांचा कमजोर हो तो रंग-रोगन भी टिक नहीं पाते। जुगाड़ दिल्ली की सीलिंग की घटनाओं से प्रेरित है। संदीप कपूर की एक विज्ञापन कंपनी है,जो बस ऊंची छलांग लगाने वाली है। सुबह होने के पहले विज्ञापन कंपनी के आफिस पर सीलिंग नियमों के तहत ताला लग जाता है। अचानक विज्ञापन कंपनी सड़क पर आ जाती हैं और फिर अस्तित्व रक्षा के लिए जुगाड़ आरंभ होता है। इस प्रक्रिया में दिल्ली के मिजाज, नौकरशाही और बाकी प्रपंच की झलकियां दिखती है। विज्ञापन कंपनी के मालिक संदीप और उनके दोस्त आखिरकार सच की वजह से जीत जाते हैं। रोजमर्रा की समस्याओं को लेकर रोचक, व्यंग्यात्मक और मनोरंजक फिल्में बन सकती हैं

फ़िल्म समीक्षा:लक बाई चांस

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फिल्म इंडस्ट्री की एक झलक -अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से हम सभी वाकिफ हैं। इस इंडस्ट्री के ग्लैमर, गॉसिप और किस्से हम देखते, सुनते और पढ़ते रहते हैं। ऐसा लगता है कि मीडिया सिर्फ सनसनी फैलाने के लिए मनगढंत घटनाओं को परोसता रहता है। 'लक बाई चांस' देखने के बाद दर्शक पाएंगे कि मीडिया सच से दूर नहीं है। यह किसी बाहरी व्यक्ति की लिखी और निर्देशित फिल्म नहीं है। यह जोया अख्तर की फिल्म है, जिनकी सारी उम्र इंडस्ट्री में ही गुजरी है। उन्होंने बगैर किसी दुराव, छिपाव या बचाव के इंडस्ट्री का बारीक चित्रण किया है। लेकिन उनके चत्रिण को ही फिल्म इंडस्ट्री की वास्तविकता न समझें। यह एक हिस्सा है, जो जोया अख्तर दिखाना और बताना चाहती हैं। विक्रम (फरहान अख्तर) और सोना (कोंकणा सेन शर्मा) फिल्म इंडस्ट्री में पांव टिकाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दोनों की कोशिश और कामयाबी के अलग किस्से हैं। वे दोनों कहीं जुड़े हुए हैं तो कहीं अलहदा हैं। विक्रम चुस्त, चालाक और स्मार्ट स्ट्रगलर है। वह अपना हित समझता है और मिले हुए अवसर का सही उपयोग करता है। फिल्म में पुराने समय की अभिनेत्री नीना का संवाद है

फ़िल्म समीक्षा-राज़

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-अजय ब्रह्मात्मज डर व सिहरन तो है लेकिन.. राज-द मिस्ट्री कंटीन्यूज में मोहित सूरी डर और सिहरन पैदा करने में सफल रहे हैं, लेकिन फिल्म क्लाइमेक्स में थोड़ी ढीली पड़ जाती है। इसके बावजूद फिल्म के अधिकांश हिस्सों में मन नहीं उचटता। एक जिज्ञासा बनी रहती है कि जानलेवा घटनाओं की वजह क्या है? अगर फिल्म के अंत में बताई गई वजह असरदार तरीके से क्लाइमेक्स में चित्रित होती तो यह फिल्म राज के समकक्ष आ सकती थी। नंदिता (कंगना रानाउत) और यश (अध्ययन सुमन) एक-दूसरे से बेइंतहा प्यार करते हैं। नंदिता का सपना है कि उसका एक घर हो। यश उसे घर के साथ सुकून और भरोसा देता है, लेकिन तभी नंदिता के जीवन में हैरतअंग्रेज घटनाएं होने लगती हैं। हालांकि उसे इन घटनाओं के बारे में एक पेंटर पृथ्वी (इमरान हाशमी) ने पहले आगाह कर दिया था। आधुनिक सोच वाले यश को यकीन नहीं होता कि नंदिता किसी प्रेतात्मा की शिकार हो चुकी है। नंदिता अपनी मौत से बचने के लिए पृथ्वी का सहारा लेती है और कालिंदी नामक गांव में पहुंचती है। उसे पता चलता है कि एक आत्मा अपने अधूरे काम पूरे करने के लिए ही यह सब कर रही है। उसका मकसद गांव के पास स्थित कीटनाशक

फ़िल्म समीक्षा:बैडलक गोबिंद, काश...मेरे होते और द प्रसिडेंट इज कमिंग की संयुक्त समीक्षा

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प्रथमग्रासे मच्छिकापात हिंदी फिल्मों में बुरी फिल्मों की संख्या बढ़ती जा रही है। फिर भी अगर दो-तीन फिल्में एक साथ रिलीज हो रही हों तो उम्मीद रहती है कि कम से कम एक थोड़ी ठीक होगी। इस बार वह उम्मीद भी टूट गई। इस हफ्ते दो हिंदी और एक अंग्रेजी फिल्म रिलीज हुई। तीनों साधारण निकलीं और तीनों ने मनोरंजन का स्वाद खराब किया। तीनों फिल्मों का अलग-अलग एक्सरे उचित नहीं होगा, इसलिए कुछ सामान्य बातें.. युवा फिल्मकार फिल्म के नैरेटिव पर विशेष ध्यान नहीं देते। सिर्फ एक विचार, व्यक्ति या विषय लेकर किसी तरह फिल्म लिखने की कोशिश में वे विफल होते हैं। बैडलक गोबिंद का आइडिया अच्छा है, लेकिन उस विचार को फिल्म के लेखक और निर्देशक कहानी में नहीं ढाल पाए। काश ़ ़ ़ मेरे होते का आइडिया नकली है। यश चोपड़ा की डर ने प्रेम की एकतरफा दीवानगी का फार्मूला दिया। इस फार्मूले के तहत कई फिल्में बनी हैं। इसमें शाहरुख खान वाली भूमिका सना खान ने की है। द प्रेसिडेंट इज कमिंग अंग्रेजी में बनी है और इसकी पटकथा भी ढीली है। ऐसा लगता है कि लेखक के दिमाग में जब जो बात आ गई, उसे उसने दृश्य में बदल दिया। इधर के लेखक-निर्देशक हिंदी फ

फ़िल्म समीक्षा:गजनी

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आम दर्शकों की फिल्म -अजय ब्रह्मात्मज फिल्म रिलीज होने से पहले आमिर खान ने कहा था, लंबे समय के बाद मैं एक्शन थ्रिलर कर रहा हूं। इस फिल्म के जरिए मेरी कोशिश है कि आम दर्शकों का मनोरंजन करूं। वह अपने उद्देश्य में सफल हुए हैं। गजनी आम दर्शकों को पसंद आ रही है। यह हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा की परंपरा की फिल्म है, जिसमें तर्क पर संयोग हावी रहता है। आप फिल्म में कार्य-कारण संबंध खोजने लगे तो निराश होंगे। इस फिल्म का आनंद सिर्फ देखने में है। संजय सिंहानिया (आमिर खान) अपनी पे्रमिका को गुंडों से बचा नहीं पाया है। वह खुद भी गजनी (प्रदीप रावत) के गुस्से का शिकार होता है। इस हमले की वजह से वह स्मृति विलोप का रोगी हो जाता है। उसकी स्मृति का क्रम 15 मिनट से ज्यादा देर तक नहीं बना रहता। इस लिए वह अपने शरीर पर लिखे काम, नाम व नंबर, तस्वीर और कार्ड के जरिए घटनाओं और लक्ष्य को याद रखता है। अभी उसका एकमात्र लक्ष्य गजनी तक पहुंचना और उसे मारना है। उसकी सामान्य जिंदगी में लौटने पर हम पाते हैं कि वह एक सामान्य व्यक्ति था। जाने-अनजाने वह एक साधारण माडल कल्पना (असिन) से प्रेम करने लगता है। वह अपनी वास्तविकता ज

फ़िल्म समीक्षा:वफ़ा

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दर्दनाक अनुभव काका उर्फ राजेश खन्ना की फिल्म वफा से उम्मीद नहीं थी। फिर भी गुजरे जमाने के इस सुपर स्टार को देखने की लालसा थी। यह उत्सुकता भी थी कि वापसी की फिल्म में वह क्या करते हैं? हिंदी फिल्मों के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना ने कभी अपने अभिनय और अनोखी शैली से दर्शकों को दीवाना बना दिया था। दूज के चांद जैसी अपनी मुस्कराहट और सिर के झटकों से वह युवाओं को सम्मोहित करते थे। आरंभिक सालों में लगातार छह हिट फिल्मों का रिकार्ड भी उनके नाम है। फिर इस सुपरस्टार को हमने गुमनामी में खोते भी देखा। वफा से एक छोटी सी उम्मीद थी कि वह अमिताभ बच्चन जैसी नहीं तो कम से कम धर्मेंद्र जैसी वापसी करेंगे। लगा जवानी में दर्शकों के चहेते रहे राजेश खन्ना को प्रौढ़ावस्था में देखना एक अनुभव होगा। अनुभव तो हुआ, मगर दर्दनाक। एक अभिनेता, स्टार और सुपरस्टार के इस पतन पर। क्या वफा से भी घटिया फिल्म बनाई जा सकती है? फिल्म देखने के बाद बार-बार यही सवाल कौंध रहा है कि राजेश खन्ना ने इस फिल्म के लिए हां क्यों की? किसी भी फिल्म की क्रिएटिव टीम से पता चल जाता है कि वह कैसी बनेगी? अपने समय के तमाम मशहूर निर्माता-निर्देशको

फ़िल्म समीक्षा:ओए लकी! लकी ओए!

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हंसी तो आती है *** -अजय ब्रह्मात्मज सब से पहले इस फिल्म के संगीत का उल्लेख जरूरी है। स्नेहा खानवलकर ने फिल्म की कहानी और निर्देशक की चाहत के हिसाब से संगीत रचा है। इधर की फिल्मों में संगीत का पैकेज रहता है। निर्माता, निर्देशक और संगीत निर्देशक की कोशिश रहती है कि उनकी फिल्मों का संगीत अलग से पॉपुलर हो जाए। इस कोशिश में संगीत का फिल्म से संबंध टूट जाता है। स्नेहा खानवलकर पर ऐसा कोई दबाव नहीं था। उनकी मेहनत झलकती है। उन्होंने फिल्म में लोकसंगीत और लोक स्वर का मधुर उपयोग किया है। मांगेराम और अनाम बच्चों की आवाज में गाए गीत फिल्म का हिस्सा बन गए हैं। बधाई स्नेहा और बधाई दिबाकर बनर्जी। दिबाकर बनर्जी की पिछली फिल्म 'खोसला का घोसलाÓ की तरह 'ओए लकी।़ लकी ओए।़Ó भी दिल्ली की पृष्ठभूमि पर बनी है। पिछली बार मध्यवर्गीय विसंगति और त्रासदी के बीच हास्य था। इस बार निम्नमध्यवर्गीय विसंगति है। उस परविार का एक होशियार बच्चा लकी (अभय देओल)दुनिया की बेहतरीन चीजें और सुविधाएं देखकर लालयित होता है और उन्हें हासिल करने का आसान तरीका अपनाता है। वह चोर बन जाता है। चोरी में उसकी चतुराई देख कर हंसी आती ह

फ़िल्म समीक्षा:युवराज

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पुरानी शैली की भावनात्मक कहानी युवराज देखते हुए महसूस होता रहा कि मशहूर डायरेक्टर अपनी शैली से अलग नहीं हो पाते। हर किसी का अपना अंदाज होता है। उसमें वह सफल होता है और फिर यही सफलता उसकी सीमा बन जाती है। बहुत कम डायरेक्टर समय के साथ बढ़ते जाते हैं और सफल होते हैं। सुभाष घई की कथन शैली, दृश्य संरचना, भव्यता का मोह, सुंदर नायिका और चरित्रों का नाटकीय टकराव हम पहले से देखते आ रहे हैं। युवराज उसी परंपरा की फिल्म है। अपनी शैली और नाटकीयता में पुरानी। लेकिन सिर्फ इसी के लिए सुभाष घई को नकारा नहीं जा सकता। एक बड़ा दर्शक वर्ग आज भी इस अंदाज की फिल्में पसंद करता है। युवराज तीन भाइयों की कहानी है। वे सहोदर नहीं हैं। उनमें सबसे बड़ा ज्ञानेश (अनिल कपूर) सीधा और अल्पविकसित दिमाग का है। पिता उसे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। देवेन (सलमान खान) हठीला और बदमाश है। उसे अनुशासित करने की कोशिश की जाती है, तो वह और अडि़यल हो जाता है। पिता उसे घर से निकाल देते हैं। सबसे छोटा डैनी (जाएद खान) को हवाबाजी अच्छी लगती है। देवेन और डैनी पिता की संपत्ति हथियाने में लगे हैं। ज्ञानेश रुपये-पैसों से अनजान होने के बावजू

फ़िल्म समीक्षा:दोस्ताना

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भारतीय परिवेश की कहानी नहीं है -अजय ब्रह्मात्मज कल हो न हो में कांता बेन के मजाक की लोकप्रियता को करण जौहर ने गंभीरता से ले लिया है। अबकि उन्होंने इस मजाक को ही फिल्म की कहानी बना दिया। दोस्ताना दो दोस्तों की कहानी है, जो किराए के मकान के लिए खुद को समलैंगिक घोषित कर देते हैं। उन्हें इस झूठ के नतीजे भी भुगतने पड़ते हैं। संबंधों की इस विषम स्थिति-परिस्थिति में फिल्म के हास्य दृश्य रचे गए हैं। आशचर्य नहीं की इसे शहरों के युवा दर्शक पसंद करें। देश के स्वस्थ्य मंत्री ने भी सुझाव दिया है कि समलैंगिक संबंधों को कानूनी स्वीकृति मिल जानी चाहिए। सम्भव है कि कारन कि अगली फ़िल्म समलैंगिक संबंधो पर हो। करण की दूसरी फिल्मों की तरह इस फिल्म की शूटिंग भी विदेश में हुई है। इस बार अमेरिका का मियामी शहर है। वहां भारतीय मूल के दो युवकों को मकान नहीं मिल पा रहा है। एक मकान मिलता भी है तो मकान मालकिन अपनी भतीजी की सुरक्षा के लिए उसे लड़कों को किराए पर नहीं देना चाहती। मकान लेने के लिए दोनों खुद को समलैंगिक घोषित कर देते हैं। फिल्म को देखते समय याद रखना होगा कि यह भारतीय परिवेश की कहानी नहीं है। यह एक ऐसे

फ़िल्म समीक्षा:दसविदानिया

अवसाद में छिपा हास्य -अजय ब्रह्मात्मज अलग मिजाज की फिल्म को पसंद करने वालों के लिए दसविदानिया उपहार है। चालू फार्मूले और स्टार के दबाव से बाहर निकल कर कुछ निर्देशक ऐसी फिल्में बना रहे हैं। शशांत शाह को ऐसे निर्देशकों में शामिल किया जा सकता है। फिल्म का नायक 37 साल का है। शादी तो क्या उसकी जिंदगी में रोमांस तकनहीं है। चेखव की कहानियों और हिंदी में नई कहानी के दौर में ऐसे चरित्र दिखाई पड़ते थे। चालू फिल्मों में इसे डाउन मार्केट मान कर नजरअंदाज किया जाता है। अमर कौल एक सामान्य कर्मचारी है। काम के बोझ से लदा और मां की जिम्मेदारी संभालता अपनी साधारण जिंदगी में व्यस्त अमर। उसे एहसास ही नहीं है कि जिंदगी के और भी रंग होते हैं। हां, निश्चित मौत की जानकारी मिलने पर उसका दबा अहं जागता है। मरने से पहले वह अपनी दस ख्वाहिशें पूरी करता है। हालांकि इन्हें पूरा करने के लिए वह कोई चालाकी नहीं करता। वह सहज और सीधा ही बना रहता है। अमर कौल की तकलीफ रूलाती नहीं है। वह उदास करती हैं। सहानुभूति जगाती हैं। चार्ली चैप्लिन ने अवसाद से हास्य पैदा करने में सफलता पाई थी। दसविदानिया उसी श्रेणी की फिल्म है। कमी यही

फ़िल्म समीक्षा: हैलो

दर्शकों को बांधने में विफल -अजय ब्रह्मात्मज दावा है कि वन नाइट एट काल सेंटर को एक करोड़ से अधिक पाठकों ने पढ़ा होगा। निश्चित ही यह हाल-फिलहाल में प्रकाशित सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास रहा है। इसी उपन्यास पर अतुल अग्निहोत्री ने हैलो बनाई है। इस फिल्म के लेखन में मूल उपन्यास के लेखक चेतन भगत शामिल रहे हैं, इसलिए वे शिकायत भी नहीं कर सकते कि निर्देशक ने उनकी कहानी का सत्यानाश कर दिया। फिल्म लगभग उपन्यास की घटनाओं तक ही सीमित है, फिर भी यह दर्शकों को उपन्यास की तरह बांधे नहीं रखती। अतुल अग्निहोत्री किरदारों के उपयुक्त कलाकार नहीं चुन पाए। सोहेल खान की चुहलबाजी उनके हर किरदार की गंभीरता को खत्म कर देती है। हैलो में भी यही हुआ। शरमन जोशी पिछले दिनों फार्म में दिख रहे थे। इस फिल्म में या तो उनका दिल नहीं लगा या वे किरदार को समझ नहीं पाए। अभिनेत्रियों के चुनाव और उनकी स्टाइलिंग में समस्या रही। गुल पनाग, ईशा कोप्पिकर और अमृता अरोड़ा तीनों से ही कुछ दृश्यों के बाद ऊब लगने लगती है। उनकेलिबास पर ध्यान नहीं दिया गया। ले-देकर दिलीप ताहिल और शरत सक्सेना ही थोड़ी रुचि बनाए रखते हैं। जाहिर सी बात है कि द

फ़िल्म समीक्षा:द्रोण

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४०० वीं पोस्ट बड़े पर्दे पर तिलिस्म -अजय ब्रह्मात्मज स्पेशल इफेक्ट और एक्शन की चर्चा के कारण द्रोण को अलग नजरिए से देखने जा रहे दर्शकों को निराशा होगी। यह शुद्ध भारतीय कथा परंपरा की फिल्म है, जिसे निर्माता-निर्देशक सही तरीके से पेश नहीं कर सके। यह न तो सुपरहीरो फिल्म है और न ही इसे भारत की मैट्रिक्स कहना उचित होगा। यह ऐयारी और तिलिस्म परंपरा की कहानी है, जो अधिकांश हिंदी दर्शकों के मानस में है। दूरदर्शन पर प्रसारित हो चुके चंद्रकांता की लोकप्रियता से जाहिर है कि दर्शक ऐसे विषय में रुचि लेते हैं। शायद निर्देशक गोल्डी बहल को भारतीय परंपरा के तिलिस्मी उपन्यासों की जानकारी नहीं है। यह एक तिलिस्मी कहानी है, जिसे व्यर्थ ही आधुनिक परिवेश देने की कोशिश की गई। द्रोण एक ऐसे युवक की कहानी है, जिसके कंधे पर सदियों पुरानी परंपरा के मुताबिक विश्व को सर्वनाश से बचाने की जिम्मेदारी है। उसका नाम आदित्य है। वह राजस्थान के राजघराने की संतान है। उसकी मदद सोनिया करती है, क्योंकि सोनिया के परिवार पर द्रोण को बचाने की जिम्मेदारी है। अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की भूमिका में आते ही दोनों वर्तमान से एक तिलिस

फ़िल्म समीक्षा:हम बाहुबली

औरों से बेहतर यह फिल्म भोजपुरी में बनी है। भोजपुरी सिनेमा ने पिछले कुछ सालों में हिंदी दर्शकों के बीच खास स्थान बना लिया है। हम बाहुबली भोजपुरी सिनेमा में आए उछाल का संकेत देती है। अनिल अजिताभ के निर्देशन में बनी यह फिल्म जाहिर करती है कि अगर लेखक-निर्देशक थोड़ा ध्यान दें और निर्माता पूरा सहयोग दें तो भोजपुरी फिल्मों की फूहड़ता खत्म हो सकती है। हम बाहुबली की कथाभूमि दर्शकों ने प्रकाश झा की फिल्मों में देखी है। इस समानता की वजह यह हो सकती है कि अनिल लंबे समय तक प्रकाश के मुख्य सहयोगी रहे। इसके अलावा हम बाहुबली के लेखन में शैवाल का सहयोग रहा। शैवाल ने प्रकाश के लिए दामुल और मृत्युदंड लिखी है। अपनी पहली फिल्म में अनिल अजिताभ उम्मीद जगाते हैं। उन्होंने बिहार के परिवेश को राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में चित्रित किया है और बाहुबली बनने के कारणों और परिस्थितियों को भी रखा है। हम बाहुबली भोजपुरी फिल्मों में प्रचलित नाच-गानों से नहीं बच पाई है। कुछ गाने ज्यादा लंबे हो गए हैं और वे कथा प्रवाह में बाधक बनते हैं। कलाकारों की बात करें तो दिनेश लाल निरहुआ की ऊर्जा प्रभावित करती है। अमर उपाध्याय खोए से दि

फ़िल्म समीक्षा:वेलकम टू सज्जनपुर

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सहज हास्य का सुंदर चित्रण -अजय ब्रह्मात्मज श्याम बेनेगल की गंभीर फिल्मों से परिचित दर्शकों को वेलकम टू सज्जनपुर छोटी और हल्की फिल्म लग सकती है। एक गांव में ज्यादातर मासूम और चंद चालाक किरदारों को लेकर बुनी गई इस फिल्म में जीवन के हल्के-फुल्के प्रसंगों में छिपे हास्य की गुदगुदी है। साथ ही गांव में चल रही राजनीति और लोकतंत्र की बढ़ती समझ का प्रासंगिक चित्रण है। बेनेगल की फिल्म में हम फूहड़ या ऊलजलूल हास्य की कल्पना ही नहीं कर सकते। लाउड एक्टिंग, अश्लील संवाद और सितारों के आकर्षण को ही कामेडी समझने वाले इस फिल्म से समझ बढ़ा सकते हैं कि भारतीय समाज में हास्य कितना सहज और आम है। सज्जनपुर गांव में महादेव अकेला पढ़ा-लिखा नौजवान है। उसे नौकरी नहीं मिलती तो बीए करने के बावजूद वह सब्जी बेचने के पारिवारिक धंधे में लग जाता है। संयोग से वह गांव की एक दुखियारी के लिए उसके बेटे के नाम भावपूर्ण चिट्ठी लिखता है। बेटा मां की सुध लेता है और महादेव की चिट्ठी लिखने की कला गांव में मशहूर हो जाती है। बाद में वह इसे ही पेशा बना लेता है। चिट्ठी लिखने के क्रम में महादेव के संपर्क में आए किरदारों के जरिए हम गां

फ़िल्म समीक्षा:१९२०

डर लगता है -अजय ब्रह्मात्मज डरावनी फिल्म की एक खासियत होती है कि वह उन दृश्यों में नहीं डराती, जहां हम उम्मीद करते हैं। सहज ढंग से चल रहे दृश्य के बीच अचानक कुछ घटता है और हम डर से सिहर उठते हैं। विक्रम भट्ट की 1920 में ऐसे कई दृश्य हैं। इसे देखते हुए उनकी पिछली डरावनी फिल्म राज के प्रसंग याद आ सकते हैं। यह विक्रम की विशेषता है। 1920 वास्तव में एक प्रेम कहानी है, जो आजादी के पहले घटित होती है। अर्जुन और लिसा विभिन्न धर्मोके हैं। अर्जुन अपने परिवार के खिलाफ जाकर लिसा से शादी कर लेता है। शादी के तुरंत बाद दोनों एक मनोरम ठिकाने पर पहुंचते हैं। वहां रजनीश को एक पुरानी हवेली को नया रूप देना है। फिल्म में हम पहले ही देख चुके हैं कि हवेली में बसी अज्ञात शक्तियां ऐसा नहीं होने देतीं। लिसा को वह हवेली परिचित सी लगती है। उसे कुछ आवाजें सुनाई पड़ती हैं और कुछ छायाएं भी दिखती हैं। ऐसा लगता है किहवेली से उसका कोई पुराना रिश्ता है। वास्तव में हवेली में बसी अतृप्त आत्मा को लिसा का ही इंतजार है। वह लिसा के जिस्म में प्रवेश कर जाती है। जब अर्जुन को लिसा की अजीबोगरीब हरकतों से हैरत होती है तो वह पहले मे

फ़िल्म समीक्षा :रॉक ऑन

दोस्ती की महानगरीय दास्तान -अजय ब्रह्मात्मज फरहान अख्तर की पहली फिल्म दिल चाहता है में तीन दोस्तों की कहानी थी। फिल्म काफी पसंद की गई थी। इस बार उनकी प्रोडक्शन कंपनी ने अभिषेक कपूर को निर्देशन की जिम्मेदारी दी। दोस्त चार हो गए। महानगरीय भावबोध की रॉक ऑन मैट्रो और मल्टीप्लेक्स के दर्शकों के लिए मनोरंजक है। आदित्य, राब, केडी और जो चार दोस्त हैं। चारों मिल कर एक बैंड बनाते हैं। आदित्य इस बैंड का लीड सिंगर है और वह गीत भी लिखता है। उसके गीतों में युवा पीढ़ी की आशा-निराशा, सुख-दुख, खुशी और इच्छा के शब्द मिलते हैं। चारों दोस्तों का बैंड मशहूर होता है। उनका अलबम आने वाला है और म्यूजिक वीडियो भी तैयार हो रहा है। तभी एक छोटी सी बात पर उनका बैंड बिखर जाता है। चारों के रास्ते अलग हो जाते हैं। दस साल बाद आदित्य की पत्नी के प्रयास से चारों दोस्त फिर एकत्रित होते हैं। उनका बैंड पुनर्जीवित होता है। आपस के मतभेद और गलतफहमियां भुलाकर सब खुशहाल जिंदगी की तरफ बढ़ते हैं। लेखक-निर्देशक अभिषेक कपूर ने रोचक पटकथा लिखी है। ऊपरी तौर पर फिल्म में प्रवाह है। कोई भी दृश्य फालतू नहीं लगता लेकिन गौर करने पर हम पाते

फ़िल्म समीक्षा:चमकू

-अजय ब्रह्मात्मज यथार्थ का फिल्मी चित्रण शहरी दर्शकों के लिए इस फिल्म के यथार्थ को समझ पाना सहज नहीं होगा। फिल्मों के जरिए अंडरव‌र्ल्ड की ग्लैमराइज हिंसा से परिचित दर्शक बिहार में मौजूद इस हिंसात्मक माहौल की कल्पना नहीं कर सकते। लेखक-निर्देशक कबीर कौशिक ने वास्तविक किरदारों को लेकर एक नाटकीय और भावपूर्ण फिल्म बनाई है। फिल्म देखते वक्त यह जरूर लगता है कि कहीं-कहीं कुछ छूट गया है। एक काल्पनिक गांव भागपुर में खुशहाल किसान परिवार में तब मुसीबत आती है, जब गांव के जमींदार उससे नाराज हो जाते हैं। वे बेटे के सामने पिता की हत्या कर देते हैं। बेटा नक्सलियों के हाथ लग जाता है। वहीं उसकी परवरिश होती है। बड़ा होने पर चमकू नक्सल गतिविधियों में हिस्सा लेता है। एक मुठभेड़ में गंभीर रूप से घायल होने के बाद वह खुद को पुलिस अस्पताल में पाता है। वहां उसके सामने शर्त रखी जाती है कि वह सरकार के गुप्त मिशन का हिस्सा बन जाए या अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठे। चमकू गुप्त मिशन का हिस्सा बनता है। वह मुंबई आ जाता है, जहां वह द्वंद्व और दुविधा का शिकार होता है। वह इस जिंदगी से छुटकारा पाना चाहता है लेकिन अपराध जगत की त

फ़िल्म समीक्षा:मुंबई मेरी जान

मुंबई के जिंदादिल चरित्र ऐसी फिल्मों में कथानक नहीं रहता। चरित्र होते हैं और उनके चित्रण से ही कथा बुनी जाती है। हालांकि फिल्म के पोस्टर पर पांच ही चरित्र दिखाए गए हैं, लेकिन यह छह चरित्रों की कहानी है। छठे चरित्र सुनील कदम को निभाने वाला कलाकार अपेक्षाकृत कम जाना जाता है, इसलिए निर्माता ने उसे पोस्टर पर नहीं रखा। फिल्म के निर्देशक निशिकांत कामत हैं और वे सबसे पहले इस उपक्रम के लिए बधाई के पात्र हैं कि आज के माहौल में वे ऐसी भावनात्मक और जरूरी फिल्म लेकर आए हैं। 11 जुलाई 2006 को मुंबई के लोकल ट्रेनों में सीरियल बम विस्फोट हुए थे। एक बारगी शहर दहल गया था और इसका असर देश के दूसरे हिस्सों में भी महसूस किया गया था। बाकी देश में चिंताएं व्यक्त की जा रही थीं, लेकिन अगले दिन फिर मुंबई अपनी रफ्तार में थी। लोग काम पर जा रहे थे और लोकल ट्रेन का ही इस्तेमाल कर रहे थे। मुंबई के इस जोश और विस्फोट के प्रभाव को निशिकांत कामत ने विभिन्न चरित्रों के माध्यम से व्यक्त किया है। उनके सभी चरित्र मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय परिवेश के हैं। न जाने क्यों उन्होंने शहर के संपन्न और सुरक्षित तबके के चरित्रों को

फ़िल्म समीक्षा:मान गए मुगलेआज़म

छेल हुए फेल कैसे मान लें कि जो अच्छा लिखते और सोचते हैं, वे अच्छी फिल्म नहीं बना सकते? मान गए मुगलेआजम देख कर मानना पड़ता है कि संजय छैल जैसे संवेदनशील, चुटीले और विनोदी प्रकृति के लेखक भी फिल्म बनाने में चूक कर सकते हैं। फिल्म की धारणा भी आयातित और चोरी की है, इसलिए छैल की आलोचना होनी ही चाहिए। ऐसी फिल्मों के लिए निर्माता से ज्यादा लेखक और निर्देशक दोषी हैं। गोवा के सेंट लुईस इलाके में कलाकार थिएटर कंपनी के साथ जुड़े कुछ कलाकार किसी प्रकार गुजर-बसर कर रहे हैं। अंडरव‌र्ल्ड पर नाटक करने की योजना में विफल होने पर वे फिर से अपना लोकप्रिय नाटक मुगलेआजम करते हैं। अनारकली बनी (मल्लिका सहरावत) शबनम का एक दीवाना अर्जुन (राहुल बोस) है। जब भी उसके पति उदय शंकर मजूमदार (परेश रावल) अकबर की भूमिका निभाते हुए पांच मिनट का एकल संवाद आरंभ करते हैं, अर्जुन उनकी पत्नी से मिलने मेकअप रूम में चला जाता है। बाद में पता चलता है कि वह रा आफिसर है। इंटरवल तक के विवाहेतर संबंध के इस मनोरंजन के बाद ड्रामा शुरू होता है। रा आफिसर थिएटर कंपनी के कलाकारों की मदद से आतंकवादियों की खतरनाक योजना को विफल करता है। ट्रीट