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फिल्‍म समीक्षा : तलवार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     नोएडा के मशहूर डबल मर्डर केस पर आधारित एक फिल्‍म ‘ रहस्‍य ’ पहले आ चुकी है। दूसरी फिल्‍म का लेखन विशाल भारद्वाज ने किया है और इसका निर्देशन मेघना गुलजार ने किया है। पिछली फिल्‍म में हत्‍या के एक ही पक्ष का चित्रण था। विशाल और मेघना ने सभी संभावित कोणों से दोनों हत्‍याओं का देखने और समझने की कोशिश की है। फिल्‍म का उद्देश्‍य हत्‍या के रहस्‍य को सुलझाना नहीं है। लेखक-निर्देशक ने बहुचर्चित हत्‍याकांड को संवेदनशील तरीके से पेश किया है। यह हत्‍याकांड मीडिया,चांच प्रक्रिया और न्‍याय प्रणाली की खामियों से ऐसी उलझ चुकी है कि एक कोण सही लगता है,लेकिन जैसे ही दूसरा कोण सामने आता है वह सही लगने लगता है।       फिल्‍म सच्‍चीर घटनाओं का हूबहू चित्रण नहीं है। घटनाएं सच्‍ची हैं,लेखक और निर्देशक ने उसे अपने ढंग से गढ़ा है। उन्‍होंने पूरी कोशिश की है कि वे मल घटनाओं के आसपास रहें। बस,हर बार परिप्रेक्ष्‍य बदल जाता है। मूल घटनाओं से जुड़ा रहस्‍य फिल्‍म में बना रहता है। निर्देशक ने उन्‍हें मूल परिवेश के करीब रखा है। परिवेश,भाषा और मनोदशा में फिल्‍मी नाटकीयता नहीं जोड़ी गई है

फिल्‍म समीक्षा : कैलेंडर गर्ल्‍स

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज मधुर भंडारकर की 'पेज 3’, 'फैशन’ और 'हीरोइन’ की कहानियां एक डब्बे में डाल कर जोर से हिलाएं और उसे कागज पर पलट दें तो दृश्यों और चरित्र के हेर-फेर से 'कैलेंडर गर्ल्स’ की कहानी निकल आएगी। मधुर भंडारकर की फिल्मों में ग्लैमर की चकाचौंध के पीछे के अंधेरे के मुरीद रहे दर्शकों को नए की उम्मीद में निराशा होगी। हां, अगर मधुर की शैली दिलचस्प लगती है और फिर से वैसे ही प्रसंगों को देखने में रूचि है तो 'कैलेंडर गर्ल्स’ भी रोचक होगी। कैलेंडर गर्ल्स मधुर भंडारकर ने हैदराबाद, कोलकाता, रोहतक, पाकिस्तान और गोवा की पांच लड़कियां नंदिता मेनन, परोमा घोष, मयूरी चौहान, नाजनीन मलिक और शैरॉन पिंटो को चुना है। वे उनके कैलेंडर गर्ल्स’ बनने की कहानी बताते हैं। साथ ही ग्लैमर वर्ल्ड में आ जाने के बाद की जिंदगी की दास्तान भी सुनाते हैं। उनकी इस दास्तान को फिल्म के गीत 'ख्वाहिशों में...’ गीतकार कुमार ने भावपूर्ण तरीके से व्यक्त किया है। यह गीत ही फिल्म का सार है- 'कहां ले आई ख्वाहिशें, दर्द की जो ये बारिशें, है गलती दिल की या फिर

फिल्‍म समीक्षा : हीरो

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पैकेजिंग और शोकेसिंग नए स्‍टारों की हीरो     1983 में सुभाष घई की फिल्‍म ‘ हीरो ’ आई थी। सिंपल सी कहानी थी। एक गुंडा टाइप लड़का पुलिस कमिश्‍नर की बेटी को अगवा करता है। लड़की की निर्भीकता और खूबसूरती उसे भती है। वह उससे प्रेम करने लगता है। लड़की के प्रभाव में वह सुधरने का प्रयास करता है। कुछ गाने गाता है। थोड़ी-बहुत लड़ाई होती है और अंत में सब ठीक हो जाता है। जैकी हीरो बन जाता है। उसे राधा मिल जाती है। ‘ था ’ और ‘ है ’ मैं फर्क आ जाता है। 2015 की फिल्‍म में 32 सालों के बाद भी कहानी ज्‍यादा नहीं बदली है। यहां सूरज है,जो राधा का अपहरण करता है। और फिर उसके प्रभाव में बदल जाता है। पहली फिल्‍म का हीरो जैकी था। दूसरी फिल्‍म का हीरो सूरज है। दोनों नाम फिल्‍म के एक्‍टर के नाम पर ही रखे गए हैं1 हिरोइन नहीं बदली है। वह तब भी राधा थी। वह आज भी राधा है। हां,तब मीनाक्षी शेषाद्रि राधा थीं। इस बार आथिया शेट्टी राधा बनी हैं।     तात्‍पर्य यह कि 32 सालों के बाद भी अगर कोई फिल्‍मी कहानी प्रासंगिक हो सकती है तो हम समझ सकते हैं कि निर्माता,निर्देशक और उनसे भी

फिल्‍म समीक्षा : दिल धड़कने दो

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स्‍टार ***1/2 साढ़े तीन स्‍टार  दरकते दिलों की दास्‍तान   -अजय ब्रह्मात्‍मज                  हाल ही में हमने आनंद राय की 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' में उत्तर भारत के मध्यरवर्गीय समाज और किरदारों की कहानी देखी। जोया अख्तरर की 'दिल धड़कने दो' में दिल्ली के अमीर परिवार की कहानी है। भारत में अनेक वर्ग और समाज हैं। अच्छी बात है कि सभी समाजों की मार्मिक कहानियां आ रही हैं। अगर कहानी आम दर्शकों के आर्थिक स्तर से ऊपर के समाज की हो तो तो उसमें अधिक रुचि बनती है, क्योंकि उनके साथ अभिलाषा और लालसा भी जुड़ जाती है। कमल मेहरा के परिवार में उनकी बेटी आएशा, बेटा कबीर, बीवी नीलम और पालतू कुत्ता प्लूटो है।                  यह कहानी प्लूटो ही सुनाता है। वही सभी किरदारों से हमें मिलाता है। प्लूटो ही उनके बीच के रिश्तों की गर्माहट और तनाव की जानकारी देता है। आएशा के दोस्ते सन्नी गिल ने ही कभी प्लूाटो को गिफ्ट किया था, जो उनके प्यार की निशानी के साथ ही परिवार का सदस्य बन चुका है।                कमल और नीलम की शादी के 30 साल हो गए हैं। कमल मेहरा बाजार में गिर रही अपनी साख को बचाने

फिल्‍म समीक्षा : जय हो डेमोक्रेसी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज स्टार: 1.5  ओम पुरी, सतीश कौशिक, अन्नू कपूर, सीमा बिस्वास, आदिल हुसैन और आमिर बशीर जैसे नामचीन कलाकार जब रंजीत कपूर के निर्देशन में काम कर रहे हों तो 'जय हो डेमोक्रेसी' देखने की सहज इच्छा होगी। सिर्फ नामों पर गए तो धोखा होगा। 'जय हो डेमोक्रेसी' साधारण फिल्म है। हालांकि राजनीतिक व्यंग्य के तौर पर इसे पेश करने की कोशिश की गई है, लेकिन फिल्म का लेखन संतोषजनक नहीं है। यही कारण है कि पटकथा ढीली है। उसमें जबरन चुटीले संवाद चिपकाए गए हैं। फिल्म का सिनेमाई अनुभव आधा-अधूरा ही रहता है। अफसोस होता है कि एनएसडी के प्रशिक्षित कलाकार मिल कर क्यों ऐसी फिल्में करते हैं? यह प्रतिभाओं का दुरूपयोग है।  सीमा के आरपार भारत और पाकिस्तान की फौजें तैनात हैं। दोनों देशों के नेताओं की सोच और सरकारी रणनीतियों से अलग सीमा पर तैनात दोनों देशों के फौजियों के बीच तनातनी नहीं दिखती। वे चौकस हैं, लेकिन एक-दूसरे से इतने परिचित हैं कि मजाक भी करते हैं। एक दिन सुबह-सुबह एक फौजी की गफलत से गोलीबारी आरंभ हो जाती है। इस बीच नोमैंस लैंड में एक मुर्गी चली आती है। मुर्गी पकडऩे भारत के

फिल्‍म समीक्षा : भोपाल-ए प्रेयर फॉर रेन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  अपने कथ्य और संदर्भ के कारण महत्वपूर्ण 'भोपाल : ए प्रेयर फॉर रेन' संगत और वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण के साथ भोपाल गैस ट्रैजेडी का चित्रण करती तो प्रासंगिक और जरूरी फिल्म हो जाती। सन् 1984 में हुई भोपाल की गैस ट्रैजेडी पर बनी यह फिल्म 20वीं सदी के जानलेवा हादसे की वजहों और प्रभाव को समेट नहीं पाती। रवि कुमार इसे उस भयानक हादसे की साधारण कहानी बना देते हैं। 'भोपाल : ए प्रेयर फॉर रेन' की कहानी पत्रकार मोटवानी( फिल्म में उनका रोल पत्रकार राजकुमार केसवानी से प्रेशर है) के नजरिए से भी रखी जाती तो पता चलता कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां तीसरी दुनिया के देशों में किस तरह लाभ के कारोबार में जान-माल की चिंता नहीं करतीं। अफसोस की बात है कि उन्हें स्थानीय प्रशासन और सत्तारूढ़ पार्टियों की भी मदद मिलती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिंसक और हत्यारे पहलू को यह फिल्म ढंग से उजागर नहीं करती। निर्देशक ने तत्कालीन स्थितियों की गहराई में जाकर सार्वजनिक हो चुके तथ्यों को भी फिल्म में समाहित नहीं किया है। फिल्म में लगता है कि यूनियन कार्बाइड के आला अधिकारी चिंतित और

फिल्‍म समीक्षा : एक्‍शन जैक्‍सन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  सही कहते हैं। अगर बुरी प्रवृत्ति या आदत पर आरंभ में ही रोक न लगाई जाए तो वह आगे चल कर नासूर बन जाती है। प्रभु देवा ने फिल्म 'वांटेड' से हिंदी फिल्मों में कदम रखा। तभी टोक देना चाहिए था। वे रीमेक बना रहे हों या कथित ऑरिजिनल कहानी चुन रहे हों। उनकी फिल्में एक निश्चित फॉर्मूले पर ही चलती हैं। उनकी फिल्मों में एक्शन, वायलेंस, डांस, रोमांस... इन चार तत्वों का अनुपात और क्रम बदलता रहता है। कथानक पटकथा और संवाद जैसी चीजें तो भूल ही जाएं। प्रभु देवा शब्दों से ज्यादा दृश्यों में यकीन करते हैं। उनकी फिल्मों में स्क्रिप्ट राइटर से बड़ा योगदान कैमरामैन, साउंड रिकॉर्डिस्ट, कोरियोग्राफर, एक्शन डायरेक्टर और हीरो का होता है। 'एक्शन जैक्सन' में तो उन्होंने दो-दो अजय देवगन रखे हैं। दो हीरोइनें भी हैं - सोनाक्षी सिन्हा और मनस्वी ममगई। दोनों का काम या तो हीरो पर रीझना है या फिर खीझना है। 'एक्शन जैक्सन' जैसी फिल्में देखते समय अजय देवगन सरीखे कद्दावर और लोकप्रिय अभिनेता की बेचारगी का एहसास होता है। 'जख्म', 'तक्षक', 'अपहर

फिल्‍म समीक्षा : यंगिस्‍तान

नई सोच की प्रेम कहानी -अजय ब्रह्मात्मज     निर्माता वासु भगनानी और निर्देशक सैयद अफजल अहमद की ‘यंगिस्तान’ राजनीति और चुनाव के महीनों में राजनीतिक पृष्ठभूमि की फिल्म पेश की है। है यह भी एक प्रेम कहानी, लेकिन इसका राजनीतिक और संदर्भ सरकारी प्रोटोकोल है। जब सामान्य नागरिक सरकारी प्रपंचों और औपचारिकताओं में फंसता है तो उसकी अपनी साधारण जिंदगी भी असामान्य हो जाती है।     देश के प्रधानमंत्री का बेटा अभिमन्यु कौल सुदूर जापान की राजधानी टोकियो में आईटी का तेज प्रोफेशनल है। वहां वह अपनी प्रेमिका के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहता है। वह पूरी मस्ती के साथ जी रहा है। एक सुबह अचानक उसे पता चलता है कि उसके पिता मृत्युशय्या पर हैं। अंतिम समय में वह पिता के करीब तो पहुंच जाता है, लेकिन अगले ही दिन उसे एक बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। पार्टी की तरफ से उसे पिता का पद संभालना पड़ता है। इस कार्यभार के साथ ही उसकी जिंदगी बदल जाती है। उसे नेताओं, अधिकारियों और जिम्मेदारियों के बीच रहना पड़ता है। वह अपनी सहचर प्रेमिका के साथ पहले की तरह मुक्त जीवन नहीं जी पाता।     जिम्मेदारी मिलने पर अभिमन्यु कौल स्थिति

फिल्‍म समीक्षा : ओ तेरी

फिल्म रिव्यू रोचक विषय का मखौल ओ तेरी -अजय ब्रह्मात्मज     उमेश बिष्ट की ‘ओ तेरी’ देखते हुए कुंदन शाह निर्देशित ‘जाने भी दो यारो’ की याद आ जाना स्वाभाविक है। उसी फिल्म की तरह यहां भी दो बेरोजगार युवक हैं। वे नौकरी और नाम के लिए हर यत्न-प्रयत्न में विफल होते रहते हैं। अखबार की संपादिका अब चैनल की हेड हो गई है। ‘ओ तेरी’ में भी एक पुल टूटता है और एक लाश के साथ दोनों प्रमुख किरदारों की मुश्किलें बढ़ती हैं।     अगर ‘ओ तेरी’ आज के सामाजिक माहौल की विसंगतियों को ‘जाने भी दो यारो’ की चौथाई चतुराई और तीक्ष्णता से भी पकड़ती तो 21 वीं सदी की अच्छी ब्लैक कामेडी हो जाती। लेखक-निर्देशक इस अवसर का इस्तेमाल नहीं कर पाते। उन्होंने अपनी कोशिश में ‘जाने भी दो यारो’ का मखौल उड़ाया है। फिल्म के प्रमुख किरदारों में पुरानी फिल्म जैसी मासूमियत नहीं है, इसलिए उनके साथ हुए छल से हम द्रवित नहीं होते। जरूरी नहीं है कि वे दूध के धूले हों लेकिन उनके अप्रोच और व्यवहार में ईमानदारी तो होनी ही चाहिए।     पुलकित सम्राट और बिलाल अमरोही दोनों प्रमुख किरदारों को जीने और पर्दे पर उतारने की कोशिश में असफल रहे हैं। समस्या

फिल्‍म समीक्षा : ढिश्‍क्‍याऊं

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  शिल्पा शेट्टी के होम प्रोडक्शन की पहली फिल्म 'ढिश्क्याऊं' पूरी तरह से क्राइम और एक्शन पर टिकी है। सनमजीत सिंह तलवार के लेखन-निर्देशन में बनी यह फिल्म मुंबई के अंडरव‌र्ल्ड को एक नए अंदाज में पेश करने की कोशिश करती है। इस बार अंडरव‌र्ल्ड को सरगना हमेशा की तरह कोई मुंबईकर नहीं है। अमूमन हम देखते रहे हैं कि सारी लड़ाई मुंबई के खास संप्रदायों से आए अपराधियों के बीच होती है। आदर्शवादी पिता के साथ रहते हुए विकी घुटन महसूस करता है। हमेशा महात्मा गांधी की दुहाई देने वाले विकी के पिता की सलाहों को अनसुना कर अपराधियों की राह चुन लेता है। बचपन की चंद घटनाओं से उसे एहसास होता है कि यह वक्त आदर्शो पर चलने का नहीं है। वह बचपन से ही गैंगस्टर बनना चाहता है। बचपन में ही उसकी मुलाकात अपराधी टोनी से होती है। टोनी पहली शिक्षा सही देता है कि कोई मारे तो उसे पलट कर मारो। इस शिक्षा पर अमल करने के साथ ही विकी खुद में तब्दीली पाता हे। टोनी उसके बारे में कहता ही है कि वह ऐसा छर्रा है, जो ट्रिगर दबाने पर कारतूस बन कर निकलेगा। 'ढिश्क्याऊं' एक भटके हुए

फिल्‍म समीक्षा : शादी के साइड इफेक्‍टृस

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पति,पत्‍नी और इच्‍छाएं  -अजय ब्रह्मात्‍मज  न तो फरहान अख्तर और न विद्या बालन,दोनों में से कोई भी कामेडी के लिए चर्चित नहीं रहा। निर्देशक साकेत चौधरी ने उन्हें शादी के साइड इफेक्ट्स में एक साथ पेश करने का जोखिम उठाया है। फरहान अख्तर की पिछली फिल्म 'भाग मिल्खा भाग' रही है। उसके पहले भी वे अपनी अदाकारी में हंसी-मजाक से दूर रहे हैं। विद्या बालन ने अवश्य घनचक्कर में एक कोशिश की थी,जो अधिकांश दर्शकों और समीक्षकों के सिर के ऊपर से निकल गई थी। साकेत चौधरी ने शादी के साइड इफेक्ट्स में दोनों को परिचित किरदार दिए हैं और उनका परिवेश घरेलू रखा है। इन दिनों ज्यादातर नवदंपति सिड और तृषा की तरह रिलेशनशिप में तनाव,दबाव और मुश्किलें महसूस कर रहे हैं। सभी शिक्षा और समानता के साथ निजी स्पेस और आजादी की चाहत रखते हैं। कई बा लगता है पति या पत्‍‌नी की वजह से जिंदगी संकुचित और सीमित हो रही है। निदान कहीं और नहीं है। परस्पर समझदारी से ही इसे हासिल किया जा सकता है,क्योंकि हर दंपति की शादीशुदा जिंदगी के अनुभव अलग होते हैं। सिड और तृषा अपनी शादीशुदा जिंदगी में ताजगी बनाए रखने के लिए न

दरअसल....मुंबई में फिल्म समीक्षा

-अजय ब्रह्मात्मज     मुंबई में इन दिनों फिल्म प्रिव्यू में दो सौ से अधिक दर्शक रहते हैं। उनमें से अधिकांश का दावा है कि वे फिल्म समीक्षक हैं। निर्माता और कारपोरेट कंपनियां किसी को नाराज नहीं करना चाहतीं। वे सभी को बिठा देती हैं। और सचमुच इतने सारे वेब साइट आ गए हैं। हर जगह फिल्मों के रिव्यू छप रहे हैं और उन पर सितारे टांके जा रहे हैं। थोड़ी देर के लिए आप भी असमंजस में पड़ सकते हैं कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? फिल्म रिलीज होने के बाद अखबारों में रिव्यू एड आ जाते हैं। कुछ निर्माता होर्डिंग्स भी टंगवा देते हैं। इनमें रेडियो जॉकी, अंक ज्योतिषी, किसी वेब समीक्षक आदि के साथ पत्र-पत्रिकाओं के नियमित समीक्षकों के भी नाम रहते हैं। समीक्षक या पत्र-पत्रिकाओं के नाम के आगे स्टार जड़ दिए जाते हैं, जो उन्होंने अपनी समीक्षा में दिए होंगे। एक सामान्य शर्त है कि स्टारों की संख्या चार या उससे अधिक हो। कभी-कभार जब जनमत 3-4 के बीच रहता है तो तीन स्टार भी शामिल कर लिए जाते हैं।     इन दिनों रिलीज हो रही चंद फिल्मों के अपवाद छोड़ दें तो अधिकांश फिल्मों को 2 से लेकर 4 स्टार तक मिलते हैं। कुछ समीक्षकों की उ

फिल्‍म समीक्षा : एबीसीडी

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-अजय ब्रह्मात्मज एक डांसर क्या करता है? वह दर्शकों को अपनी अदाओं से इम्प्रेस करता है या अपनी भंगिमाओं से कुछ एक्सप्रेस करता है। प्रभाव और अभिव्यक्ति के इसी द्वंद्व पर 'एबीसीडी' की मूल कथा है। बचपन के दोस्त जहांगीर और विष्णु कामयाबी और पहचान हासिल करने के बाद डांस से 'इम्प्रेस' और 'एक्सप्रेस' करने के द्वंद्व पर अलग होते हैं। जहांगीर को लगता है कि इम्प्रेस करने के लिए उसे अपनी कंपनी में विदेशी नृत्य निर्देशक की जरूरत है। आहत होकर विष्णु लौट जाने का फैसला करता है, लेकिन कुछ युवक-युवतियों के उत्साह और लगन को एक दिशा देने के लिए वह रुक जाता है। 'एबीसीडी' एक प्रकार से वंचितों की कहानी है। समाज के मध्यवर्गीय और निचले तबकों के युवा साहसी और क्रिएटिव होते हैं, लेकिन असुविधाओं और दबावों की वजह से वे मनचाहे पेशों को नहीं अपना पाते। विष्णु एक जगह समझाता है कि काम वही करो, जो मन करे। मन का काम न करने से दोहरा नुकसान होता है। 'एबीसीडी' सामूहिकता, टीमवर्क, अनुशासन और जीतने की जिद्द की शिक्षा देती है। डांस ऐसा नशा है कि उसके बाद किसी नशे की ज

फिल्‍म समीक्षा : डेविड

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नाम में कुछ रखा है -अजय ब्रह्मात्मज लंदन - 1975 मुंबई - 1999 गोवा - 2010 अलग-अलग देशकाल में तीन डेविड हैं। इन तीनों की अलहदा कहानियों को बिजॉय नांबियार ने एक साथ 'डेविड' में परोसा है। फिल्म की इस शैली की जरूरत स्पष्ट नहीं है, फिर भी इसमें एक नयापन है। लगता है नाम में ही कुछ रखा है। लेखक-निर्देशक चाहते तो तीनों डेविड की कहानियों पर तीन फिल्में बना सकते थे, लेकिन शायद उन्हें तीनों किरदारों की जिंदगी में पूरी फिल्म के लायक घटनाक्रम नहीं नजर आए। बहरहाल, बिजॉय एक स्टायलिस्ट फिल्ममेकर के तौर पर उभरे हैं और उनकी यह खूबी 'डेविड' में निखर कर आई है। लंदन के डेविड की दुविधा है कि वह इकबाल घनी के संरक्षण में पला-बढ़ा है। घनी उसे अपने बेटे से ज्यादा प्यार करता है। डेविड को एक प्रसंग में अपने जीवन का रहस्य घनी के प्यार का कारण पता चलता है तो उसकी दुविधा बढ़ जाती है। गैंगस्टर डेविड अपने संरक्षक घनी की हत्या की साजिश में शामिल होता है, लेकिन ऐन वक्त पर वह उसकी रक्षा करने की कोशिश में मारा जाता है। मुंबई के डेविड की ख्वाहिश संगीतज्ञ बनने की है। वह अपने पादरी पिता की

फिल्‍म समीक्षा : विश्‍वरूप

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हंगामा है क्यों बरपा -अजय ब्रह्मात्‍मज भारतीय मिथक में विश्वरूप शब्द कृष्ण के संदर्भ में इस्तेमाल होता है। कृष्ण ने पहले अपनी मां को बालपन में ही विश्वरूप की झलक दी थी। बाद में कुरूक्षेत्र में अर्जुन के आग्रह पर उन्होंने विश्वरूप का दर्शन दिया था और उन्हें इसे देखने योग्य दिव्य दृष्टि भी दी थी। कमल हासन की फिल्म 'विश्वरूप' में तौफीक उर्फ वसीम कश्मीरी उर्फ विश्वनाथ जैसे नामों और पहचान के साथ एक रॉ आफिसर का आधुनिक विश्वरूप दिखता है। वह एक मिशन पर है। इस मिशन को साधने के लिए वह विभिन्न रूपों को धारण करता है। कमल हासन अपनी फिल्मों में निरंतर भेष और रूप बदलते रहते हैं। इस मायने में वे बहुरूपिया कलाकार हैं। हर नई फिल्म में वे अपने सामने नए लुक और कैरेक्टर की चुनौती रखते हैं और उन्हें अपने अनुभवों एवं योग्यता से पर्दे पर जीवंत करते हैं। 'विश्वरूप' में उन्होंने आज के ज्वलंत मुद्दे आतंकवाद की पृष्ठभूमि में अपने किरदार को गढ़ा है। इस फिल्म की कथाभूमि मुख्य रूप से अफगानिस्तान और अमेरिका में है। फिल्म की शुरुआत में वे एक नर्तक के रूप में आते हैं। उन्होंने बिरजू

फिल्‍म समीक्षा : लिसेन अमाया

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रिश्तों का नया समीकरण -अजय ब्रह्मात्‍मज  बदलते समाज में भावनाएं, संबंध और हम सभी के आसपास की जिंदगी तेजी से बदल रही है। विधुर या विधवा होने के बाद जिंदगी में अकेला पड़ गया व्यक्ति कई बार दूसरों के प्रति आकर्षण महसूस करता है, लेकिन सामाजिक दबाव और घरेलू जिम्मेदारियों के बीच वह प्रिय व्यक्ति के साथ नहीं रह पाता। समाज और बच्चे अपने माता-पिता के नए संबंधों को सहजता से नहीं ले पाते। अमाया तेज, समझदार और आज की लड़की है। पिता के न रहने के बाद वह अपनी मां लीला के साथ बेहतरीन जिंदगी जी रही है। दोनों के रिश्ते मधुर और भरोसे के हैं। उनके बीच खुली बातचीत होती है, लेकिन मां की जिंदगी में आए जयंत सिन्हा को देखते ही अमाया बिखर और बिफर जाती है। लीला स्वावलंबी मां है। पति के निधन के बाद उन्होंने अमाया को अकेले ही पाला है। जीवन के महत्वूपर्ण साल उन्होंने अमाया की देखभाल में बिताया है। वह 'बुक ए कॉफी' नाम से एक कैफे भी चलाती हैं। निजी देख-रेख और सेवा की वजह से उनका कैफे सभी के बीच लोकप्रिय है। इसी कैफे में फोटोग्राफर जयंत सिन्हा से लीला की मुलाकात होती है। वे विधुर हैं। दो

फिल्‍म समीक्षा : कसम से कसम से

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  -अजय बह्मात्‍मज  हिंदी फिल्मों के सामान्य हीरो के लिए लव, रोमांस, डांस, एक्शन और डायलॉग डिलिवरीमुख्य रूप से ये पांच चीजें जरूरी होती हैं। माना जाता है कि इनमें हिंदी फिल्मों के एक्टर को दक्ष होना चाहिए। यही कारण है कि फिल्म इंडस्ट्री के हर पिता अपने बेटे की लांचिंग फिल्म में इन पांचों तत्वों का ताना-बाना बुनते हैं। एक ऐसी फिल्म तैयार करते हैं, जिसमें लांचिंग हो रहे बेटे की दक्षता दिखायी जा सके। निर्माता नाजिम रिजवी ने इसी उद्देश्य से कसम से कसम से का निर्माण किया है। इस उद्देश्य से शिकायत नहीं है, लेकिन देखना चाहिए कि पर्दे पर पेश किया जा रहा एक्टर कहीं अपनी कमजोरी ही न जाहिर कर दे। कसम से कसम से अनेक गानों और चंद घिसे-पिटे दृश्यों की फिल्म है। कैंपस फिल्म की एक खूबी एनर्जी होती है। वह हीरो और सहयोगी कलाकार पैदा करते हैं। इस फिल्म में यह एनर्जी सिरे से गायब है,जबकि फिल्म के पोस्टर में यह बताया गया है कि यह 22 करोड़ युवकों की सोच पर आधारित है। रोमांस और प्रेम के दृश्यों में नवीनता नहीं है। किसी बहाने गीत डाल डाल देने की कोशिश में फिल्म में ड्रामा की गुंजाइश नही

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई

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  जघन्य राजनीति का खुलासा -अजय ब्रह्मात्‍मज शांघाई दिबाकर बनर्जी की चौथी फिल्म है। खोसला का घोसला, ओय लकी लकी ओय और लव सेक्स धोखा के बाद अपनी चौथी फिल्म शांघाई में दिबाकर बनर्जी ने अपना वितान बड़ा कर दिया है। यह अभी तक की उनकी सबसे ज्यादा मुखर, सामाजिक और राजनैतिक फिल्म है। 21वीं सदी में आई युवा निर्देशकों की नई पीढ़ी में दिबाकर बनर्जी अपनी राजनीतिक सोच और सामाजिक प्रखरता की वजह से विशिष्ट फिल्मकार हैं। शांघाई में उन्होंने यह भी सिद्ध किया है कि मौजूद टैलेंट, रिसोर्सेज और प्रचलित ढांचे में रहते हुए भी उत्तेजक संवेदना की पक्षधरता से परिपूर्ण वैचारिक फिल्म बनाई जा सकती हैं। शांघाई अत्यंत सरल और सहज तरीके से राजनीति की पेंचीदगी को खोल देती है। सत्ताधारी और सत्ता के इच्छुक महत्वाकांक्षी व्यक्तियों की राजनीतिक लिप्सा में सामान्य नागरिकों और विरोधियों को कुचलना सामान्य बात है। इस घिनौनी साजिश में नौकशाही और पुलिस महकमा भी चाहे-अनचाहे शामिल हो जाता है। दिबाकर बनर्जी और उर्मी जुवेकर ने ग्रीक के उपन्यासकार वसिलिस वसिलिलोस के उपन्यास जी का वर्तमान भारतीय संदर्भ में रूपांत

फिल्म समीक्षा के भी सौ साल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  पटना के मित्र विनोद अनुपम ने याद दिलाते हुए रेखांकित किया कि भारतीय सिनेमा के 100 साल के आयोजनों में लोग इसे नजरअंदाज कर रहे हैं कि फिल्म समीक्षा के भी 100 साल हो गए हैं। दादा साहेब फालके की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र की रिलीज के दो दिन बाद ही बॉम्बे क्रॉनिकल में 5 मई, 1913 को उसका रिव्यू छपा था। निश्चित ही भारतीय संदर्भ में यह गर्व करने के साथ स्मरणीय तथ्य है। पिछले 100 सालों में सिनेमा के विकास के साथ-साथ फिल्म समीक्षा और लेखन का भी विकास होता रहा है, लेकिन जिस विविधता के साथ सिनेमा का विकास हुआ है, वैसी विविधता फिल्म समीक्षा और लेखन में नहीं दिखाई पड़ती। खासकर फिल्मों पर लेखन और उसका दस्तावेजीकरण लगभग नहीं हुआ है। इधर जो नए प्रयास अंग्रेजी में हो रहे हैं, उनमें अधिकांश लेखकों की कोशिश इंटरनेशनल पाठकों और अध्येताओं को खुश करने की है। हिंदी फिल्मों की समीक्षा के पहले पत्र-पत्रिकाओं ने उपेक्षा की। कला की इस नई अभिव्यक्ति के प्रति सशंकित रहने के कारण यथेष्ट ध्यान नहीं दिया गया। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में फिल्मों का स्थान न देने की नीति बनी रही।

फिल्‍म समीक्षा : स्टेनली का डब्बा

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टिफिन में भरी संवदेना -अजय ब्रह्मात्मज सबसे पहले इसे बच्चों की फिल्म (चिल्ड्रेन फिल्म) समझने की भूल न करें। इस फिल्म में बच्चे हैं और वे शीर्षक एवं महत्वपूर्ण भूमिकाओं में हैं, लेकिन यह फिल्म बड़ों के लिए बनी है। इस फिल्म की यह खूबी है तो यही उसकी कमी भी है। स्टेनली का डब्बा में बाल मनोविज्ञान से अधिक फोकस बड़ों का उनके प्रति दोषपूर्ण रवैए पर है। स्टेनली का डब्बा के लेखक-निर्देशक अमोल गुप्ते हैं। अमोल गुप्ते की पिछली फिल्म तारे जमीन पर थी। वे उसके क्रिएटिव डायरेक्टर थे। स्कूल के बच्चों के टिफिन का फिल्म में प्रतीकात्मक इस्तेमाल है। निर्देशक स्टेनली नामक लड़के के बहाने स्कूल के माहौल, टीचर के व्यवहार, बच्चों की दोस्ती और उनकी मासूमियत एवं प्रतिभा का चित्रण करते हैं। स्टेनली अकेला लड़का है, जो टिफिन लेकर स्कूल नहीं आता। वह पेटू हिंदी टीचर बाबूभाई वर्मा की नजरों में अटक जाता है। वर्मा की रुचि बच्चों को पढ़ाने से अधिक उनके टिफिन साफ करने में रहती है। वह स्टेनली को अपना दुश्मन और प्रतिद्वंद्वी मान बैठता है और आदेश देता है कि टिफिन नहीं तो स्कूल नहीं। इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी बच्च