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अक्षय कुमार से अजय ब्रह्मात्‍मज की बातचीत

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-अजय ब्रह्मात्मज     अक्षय कुमार हाल ही में इस्तांबुल से नीरज पांडे की फिल्म ‘बेबी’ की शूटिंग से लौटे हैं। मुंबई आते ही वे अपनी अगली फिल्म ‘हॉलीडे’ के प्रचार में जुट गए हैं। अमूमन बाकी पापुलर स्टार अपनी फिल्मों के धूआंधार प्रचार में कम से कम दो महीने लगाते हैं। अक्षय कुमार उन सभी से अलग तरीका अपनाते हैं। - ‘हॉलीडे’ क्या है? 0 इस फिल्म में मुर्गोदास ने एक नए विषय को टच किया है। यह फिल्म सिलीपर सेल के बारे में है। 26 11 को ताज और ओबेराय में जो आतंकवादी गतिविधियां हुई थी उन्हें सिलीपर सेल ही ने की थी। अमेरिका में 9 11 भी इन्हीं लोगों ने किया था। ऐसे लोग बहुत पहले से किसी देश में चले जाते हैं। वहां के नागरिक बन कर रहते हैं। परिवार बसा लेते हैं, लेकिन बीवी तक को पता नहीं रहता कि वे कौन हैं? इस फिल्म का संदेश है कि अपनी आंखें खुली रखें। लोगों से मिलते-जुलते समय सावधान रहें। अभी कुछ भी सुरक्षित नहीं रह गया है। मुझे यह विषय अनोखा लगा। अभी तक के फिल्मों में टेररीज्म की बातें एक ही तरीके से दिखाई जाती है। - लेकिन इसमें तो आप सेना के जवान बने हुए हैं? 0 हां, मैं फौज में हूं। लंबे समय की

नई पीढ़ी की फिल्‍म है 'फगली'

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-अजय ब्रह्मात्मज     निश्चित ही फिल्म का टायटल थोड़ा अजीब सा है। मेरे एक दोस्त ने स्क्रिप्ट पढऩे के बाद कहा था कि तेरी स्क्रिप्ट ‘फगली’ सी है। फिल्म के नाम को लेकर हम जूझ ही रहे थे। मुझे यही नाम अच्छा लगा। फिल्म के एक गाने में हमने बता दिया है कि हमें क्या-क्या ‘फगली’ लगता है। इस नाम में आए एफ के साथ जो शब्द बना लें और उसके साथ ‘अगली’  जोड़ दें। इस फिल्म को देखने के बाद आप एक इंप्रेसन के साथ सिनेमाघर से निकलेंगे। फिल्म का रफ कट देखने के बाद किसी ने कहा कि ‘रंग दे बसंती’ जहां खत्म होती है, वहां से यह फिल्म शुरू होती है। इस फिल्म में हम सिर्फ मसला ही नहीं बता रहे हैं। हम उसका हल भी बता रहे हैं।     यह चार किरदारों देव, गौरव, आदित्य और डायन की कहानी है। चारों दोस्त हैं। कालेज से निकले हैं। जिंदगी में प्रवेश करने वाले हैं। कालेज निकलते समय हम सभी के पास सपने होते हैं। चारों दोस्त दिल्ली की गंदगी से बचे हुए हैं। अमीर बनने की जल्दबाजी में नहीं हैं वे। ड्रग्स में नहीं है। उन्होंने अपनी सीमा रेखा तय कर ली है। वे महात्मा भी नहीं हैं। पार्टी-पिकनिक भी करते रहते हैं। इनका सामना एक पुलिस इंस्पेक

‘फितूर’ में साथ आएंगी रेखा और कट्रीना

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-अजय ब्रह्मात्मज     रेखा, कट्रीना कैफ और आदित्य राय कपूर ़ ़ ़ अभिषेक कपूर की आगामी फिल्म ‘फितूर’ के तीनों कलाकारों के इस संयोग का कमाल पर्दे पर अगले साल दिखेगा। स्वयं अभिषेक कपूर इस कमाल के प्रति उत्सुक और उत्साही हैं। ‘सच कहूं तो अपनी ड्रीम कास्टिंग के बावजूद मैं अभी नहीं बता सकता कि पर्दे पर तीनों का साथ आना कैसा जादू बिखेरेगा? मेरी फिल्म ‘फितूर’ आम हिंदी फिल्म नहीं है। सभी जानते हैं कि यह चाल्र्स डिकेंस के उपन्यास ‘ग्रेट एक्पेक्टेशंस’ पर आधारित है। लेकिन मेरी फिल्म मूल उपन्यास के पन्नों से निकल कर भारतीय माहौल में बनेगी तो किसी और रूप में नजर आएगी,’ कहते हैं अभिषेक कपूर।     ‘फितूर’ में रेखा और कट्रीना कैफ का साथ आना  हिंदी फिल्मों की एक बड़ी घटना है। 1970 में ‘सावन भादो’ से शुरुआत कर अंतिम फिल्म ‘कृष 3’ 2014 तक के सफर में रेखा ने अपनी प्रतिभा की विविधता का परिचय दिया है। लंबे समय तक नायिका की भूमिका में विभिन्न किरदारों को जीने के बाद निजी जिंदगी में वह रहस्य की मूर्ति बन गई हैं। अन्य अभिनेत्रियों की तरह आए दिन उनकी खबरें नहीं छपतीं। वह दिखती भी नहीं हैं। कभी-कभार किसी समारोह

अनुराग कश्‍यप का युद्ध

तिग्‍मांशु धूलिया- ये क्षेत्र जो है ,हमारा है। यहां पर आप को हमारे तरीके से रहना होगा। अमिताभ बच्‍चन- ये खेल अब आप को मेरी तरह ही खेलना होगा। सोनी टीवी के आगामी धारावाहिक 'युद्ध' के संवाद...इसे अनुराग कश्‍यन निर्देशित कर रहे है। इसमें नवाज और केके भी है।

फिल्‍म समीक्षा : कुक्कू माथुर की झंड हो गई

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-अजय ब्रह्मात्मज कहीं की ईंट,कहीं का रोड़ा     जिगरी दोस्त पारिवारिक अपेक्षाओं और निजी आकांक्षाओं की वजह से अपनी-अपनी जिंदगी में मशगूल हो जाते हैं। अपनी जिंदगी में सुरक्षित और व्यवस्थित नहीं हो सका कुक्कू अपने दोस्त रोनी से छल करता है। इस कार्य में प्रभाकर उसकी मदद करता है। प्रभाकर आज के समय का ऐसा मददगार व्यक्ति है, जो जुगाड़ और प्रपंच के शॉर्टकट से सब कुछ हासिल करवा सकता है। इस शॉर्टकट के बुरे परिणाम भी सामने आते हैं। इस सफर में आखिरकार कुक्कू की आत्मा जागती है। वह अपने कुकर्मों को सुधारता है और फिर ़ ़ ़     अमन सचदेवा की फिल्म ‘कुक्कू माथुर की झंड हो गई’ की अवधारणा बहुत अच्छी है, मगर लेखक-निर्देशक इस अवधारणा को कागज पर उतारने में असफल हो गए हैं। हालांकि उन्होंने ऐसी फिल्मों के लिए आवश्यक सभी उपादान जोड़े हैं। सारी तिकड़में शामिल की हैं। शायद इसी ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा’ की वजह से फिल्म अपनी बात नहीं कह पाती। कलाकारों में केवल प्रभाकर की भूमिका निभा रहे अमित स्याल ही संतुष्ट करते हैं। बाकी सभी कलाकारों का परफारमेंस बुरा है।     इस फिल्म के निर्माताओं में बिजॉय नांबियार का भी न

फिल्‍म समीक्षा : सिटीलाइट्स

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दुख मांजता है  -अजय ब्रह्मात्‍मज  माइग्रेशन (प्रव्रजन) इस देश की बड़ी समस्या है। सम्यक विकास न होने से आजीविका की तलाश में गावों, कस्बों और शहरों से रोजाना लाखों नागरिक अपेक्षाकृत बड़े शहरों का रुख करते हैं। अपने सपनों को लिए वहां की जिंदगी में मर-खप जाते हैं। हिंदी फिल्मों में 'दो बीघा जमीन' से लेकर 'गमन' तक हम ऐसे किरदारों को देखते-सुनते रहे हैं। महानगरों का कड़वा सत्य है कि यहां मंजिलें हमेशा आंखों से ओझल हो जाती हैं। संघर्ष असमाप्त रहता है। हंसल मेहता की 'सिटीलाइट्स' में कर्ज से लदा दीपक राजस्थान के एक कस्बे से पत्नी राखी और बेटी माही के साथ मुंबई आता है। मुंबई से एक दोस्त ने उसे भरोसा दिया है। मुंबई आने पर दोस्त नदारद मिलता है। पहले ही दिन स्थानीय लोग उसे ठगते हैं। विवश और बेसहारा दीपक को हमदर्द भी मिलते हैं। यकीनन महानगर के कोनों-अंतरों में भी दिल धड़कते हैं। दीपक को नौकरी मिल जाती है। एक दोस्त के बहकावे में आकर दीपक साजिश का हिस्सा बनता है, लेकिन क्या यह साजिश उसके सपनों को साकार कर सकेगी? क्या वह अपने परिवार के साथ सुरक्षित जिंदगी जी

श्रद्धांजलि - मेरे शिक्षक और लेखक जय दीक्षित

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-महेश भट्ट महेश भट्ट की ‘सर’,‘फिर तेरी कहानी याद आई’,‘नाराज’,‘नाजायज’ और ‘क्रिमिनल’ जैसी फिल्मों के लेखक जय दीक्षित हिंदी के मशहूर लेखक जगदंबा प्रसाद दीक्षित का फिल्मी नाम था। उनके उपन्यास  ‘मुर्दाघर’ और ‘कआ हुआ आसमान’ काफी चर्चित रहे। पिछले हफ्ते मंगलवार को जर्मनी में उनका निधन हो गया। उन्हें याद करते हुए महेश भट्ट ने यह श्रद्धांजलि लिखी है।     कहते हैं कि अगर आप नहीं चाहते कि मरने के साथ ही लोग आप को  भूल जाएं तो पढऩे लायक कुछ लिख जाएं या फिर लिखने लायक कुछ कर जाएं। मेरे शिक्षक, लेखक, दोस्त जय दीक्षित ने दोनों किया।     मेरे सेलफोन पर फ्रैंकफट में हुई उनकी मौन की खबर चमकी तो यही खयाल आया। जय दीक्षित की मेरी पहली याद अपने शिक्षक के तौर पर है। वे कक्षा में शुद्ध हिंदी में पढ़ा रहे थे। उनका सुंदर व्यक्तित्व आकर्षित कर रहा था। यह सातवें दशक की बात है। वे सेंट जेवियर्स कॉलेज में फस्र्ट ईयर के छात्रों को हिंदी पढ़ा रहे थे। उनमें एक अलग धधकता ठहराव था। बहुत बाद में समझ में आया कि वे दूसरे अध्यापकों से क्यों भिन्न थे? एक दिन अखबार में मैंने खबर पढ़ी कि सेंट जेवियर्स कॉलेज के एक प्रोफेसर क

अंधेरा है महानगरों की चकाचौंध में-हंसल मेहता

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-अजय ब्रह्मात्मज     हंसल मेहता और राजकुमार राव की जोड़ी की दूसरी फिल्म ‘सिटीलाइट््स’ आ रही है। पिछले साल की ‘शाहिद’ के लिए दोनों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। ‘सिटी लाइट’ का निर्माण महेश भट्ट और फॉक्स स्टार स्टूडियोज ने किया है। ‘सिटीलाइट्स’ में राजकुमार राव राजस्थान के दीपक की भूमिका में हैं, जो आजीविका के लिए मुंबई आता है। मुंबई जैसे महानगर में दीपक के सरवाइवल और संघर्ष की यह कहानी छोटे शहरों से सपनों के साथ बडे शहरों में आ रहे लाखों-करोड़ों युवकों की प्रतीकात्मक कहानी है।     हंसल मेहता से पहले इस फिल्म के निर्देशन के लिए अजय बहल को चुना गया था। उन्होंने ‘शाहिद’  देख रखी थी। उन्हें लगा कि हंसल ‘सिटीलाइट़्स’ की थीम के साथ न्याय कर सकते हैं। ऐसा लग सकता है कि हंसल मेहता ने ही इस फिल्म के लिए राजकुमार राव को चुना होगा। यहां तथ्य उल्टे हैं। राजकुमार राव पहले से फिल्म में थे। बाद में हंसल मेहता को बतौर निर्देशक बुलाया गया।     ‘शाहिद’ के लिए मिले पुरस्कार से फर्क तो पड़ा है। हंसल बताते हैं, ‘संयोग है कि हम दोनों को पुरस्कार मिले और अब ‘सिटीलाइट्स’ आ रही है। फिल्म इंडस्ट्री और बाकी लोग

भाते हैं अपने मिजाज से अलग किरदार-जिम्मी शेरगिल

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-अजय ब्रह्मात्मज     कबीर सदानंद की ‘फगली’ में जिम्मी शेरगिल दिल्ली पुलिस के हरियाणवी पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभा रहे हैं। अपने अंदाज और लहजे में उन्होंने हरियाणवी खूबियां उतार ली हैं। - ‘फगली’ में आप का हरियाणवी अंदाज आ रहा है? 0 दिल्ली पुलिस का एक ऑफिसर है। वह हरियाणवी है। भाषा, लहजा और अंदाज हरियाणा का है। वह थोड़ा सिरफिरा है। पुलिस रूलबुक उसे याद है। गंदी और बुरी स्थितियों में भी फायदा उठाने से नहीं हिचकता। वह इंटरेस्टिंग होने के साथ विचित्र भी है। कोई नहीं बता सकता है कि अगले पल ही वह क्या करेगा? वह अडिय़ल, चालाक और तेज दिमाग है। वह सिस्टम और पब्लिक के बीच का लिंक है। - मतलब सिस्टम की कमजोरियों और सूराखों से परिचित है और उसका फायदा उठाता है? 0 हां,एक हद तक। अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि कुछ पुलिस अधिकारी सारे नियम-कानून जानते हैं। कबीर ने इस किरदार को रोचक तरीके से प्रजेंट किया है। पुलिस के तौर-तरीकों को बारीकी से रखा गया है। - आप के अपने मिजाज से ऐसे किरदार मेल नहीं खाते तो फिर निभाने में दिक्कत होती होगी? 0 मजा आता है। जो आप नहीं होते हैं, उसे पर्दे पर निभाना हो,यह

आजाद सोच पर फुलस्टॉप के विरुद्ध - महेश भट्ट

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महेश भट्ट (महेश भट्ट का यह जरूरी लेख आज अमर उजाला में छपा है।) मुझे खुशफहमी नहीं है कि मेरी जो दृष्टि है, वही पूरी फिल्म इंडस्ट्री की दृष्टि है। मैं पूछता हूं कि हिंदुस्तानी सिनेमा का मयार विश्व सिनेमा में ऊंचा क्यों है? चीन जो आज हर मामले में आपसे आगे है, वह क्यों सिनेमा में पीछे है? वजह सीधी-सी है, हमारी आजादी। द राइट टू फ्री स्पीच। यह फिल्म इंडस्ट्री की धड़कन है। अगर आपने इंफ्रास्ट्रक्चर बना दिया, हर किस्म की तकनीक लगा दी, लेकिन फ्री स्पीच का गला घोंट दिया, तो इंडस्ट्री दम तोड़ देगी। चीन के पास सब कुछ है, मगर आजादी नहीं है। जो समाज अपने कलाकारों, लेखकों और निर्देशकों को जेहनी आजादी नहीं देता, वो शापित समाज है। इसके बाद आप कला और सिनेमा के विकास के लिए जितना चाहे पैसा लगा लीजिए, कुछ होने वाला नहीं है। मिडिल ईस्ट, सऊदी अरब और सिंगापुर में क्या कम पैसा है? चक्कर यह है कि आजाद सोच जहां होती है, वहीं सिनेमा या कला का जन्म होता है। 1998 में जब एनडीए सत्ता में थी, तो इन्होंने सिनेमा की आजादी को रोका था। इन्होंने मेरी फिल्म ‘जख्म’ के साथ क्या किया! यह फिल्म इनकी द