‘मैं हूं या मैं नहीं हूं’ के सवाल से जूझता ‘हैदर’ - उमेश पंत
-उमेश पंत हैदर कश्मीर के भूगोल को अपनी अस्मिता का सवाल बनाने की जगह कश्मीरियों के मनोविज्ञान को अपने कथानक के केन्द्र में खड़ा करती है और इसलिये उसकी यही संवेदनशीलता उसे बाकी फिल्मों से अलग पंक्ति में खड़ा कर देती है। हैदर इन्तकाम के लिये इन्तकाम को नकारती एक फिल्म है। हैदर की सबसे खूबसूरत बात ये है कि उसमें मौजूद हिंसा भी, हिंसा के खिलाफ खड़ी दिखाई देती है। मैं जिन दिनों मुम्बई में रह रहा था मेरा एक रुम मेट कश्मीरी था। उसके पापा एक आईएएस आॅफीसर हैं। उन दिनों उसकी मां मुम्बई आई हुई थी। वो अक्सर खामोश रहती। मैं देर रात भर अपने कमरे में बैठा लिख रहा होता और वो चुपचाप किचन में बरतनों से जूझती रहती। कुछ देर बाद पूरे कमरे में खुशबू फैल जाया करती। उस खुशबू में कश्मीर बसा होता। खाना तैयार होने के बाद वो मुझे अपने कमरे में बुलाती और प्यार से मेरे मना करने के बावजूद मेरे लिये खाना परोस देती। एक दिन जब वो लड़का घर पे नहीं था मैं आंटी के पास बैठा उनसे कश्मीर के बारे में पूछ रहा था। आंटी कितनी खूबसूरत जगह में रहते हो आप। मेरे ये कहने पर वो कुछ देर चुप रही और फिर कश्मी