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प्रशंसकों को थैंक्यू बोल कर आगे बढ़ना पड़ता है-अनुराग कश्यप

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-अजय ब्रह्मात्‍मज - बाॅम्बे वेलवेट के पूरे वेंचर को आप कैसे देख पा रहे हैं? इस फिल्म के जरिए हम जिस किस्म की दुनिया व बांबे क्रिएट करना चाहते थे, उसमें हम सफल रहे हैं। फैंटम समेत मुझ से जुड़े सभी लोगों के लिए यह बहुत बड़ी पिक्चर है। इस फिल्म के जरिए हमारा मकसद दर्शकों को छठे दशक के मुंबई में ले जाना है। लोगों को लगे कि वे उस माहौल में जी रहे हैं। लिहाजा उस किस्म का माहौल बनाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी है। -इस तरह की फिल्म हिंदी में रही नहीं है। जैसा बाॅम्बे आपने फिल्म में क्रिएट किया है, उसका कोई रेफरेंस प्वॉइंट भी नहीं रहा है..? बिल्कुल सही। हम लोगों को शब्दों में नहीं समझा सकते कि फिल्म में किस तरह की दुनिया क्रिएट की गई है। पता चले हम लोगों को कुछ अच्छी चीज बताना चाहते हैं, लोग उनका कुछ और मतलब निकाल लें। बेहतर यही है कि लोग ट्रेलर और फिल्म देख खुद महसूस करें कि हमने क्या गढ़ा है? बेसिकली यह एक लव स्टोरी है... -... पर शुरू में आप का आइडिया तीन फिल्में बनाने का था? वह अभी भी है। यह बनकर निकल जाए तो बाकी दो पाइपलाइन में हैं। इत्तफाकन तीनों कहानियों में कॉमन फैक्टर  शहर बाम्बे और एकाध

बॉम्‍बे वेल्‍वेट का हिंदी पोस्‍टर और आम हिंदुस्‍तानी गीत के बोल

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  हिंदी पत्रकारों और पत्र-पत्रिकाओं की सुविधा के लिए बॉम्‍बे वेल्‍वेट का हिंदी पोस्‍टर। अभी तक आप जिस भी तरीके से फिल्‍म का नाम लिखते रहे हों। आगे से इसका नाम बॉम्‍बे वेल्‍वेट ही लिखें तो नाम की एकरूपता बनी रहेगी।  साथ में पेश ही इसी फिल्‍म के एक गीत के बोल.... बाॅम्‍बे वेल्‍वेट मूल गीत रोमन हिंदी-अमिताभ भट्टाचार्य                                             लिप्‍यंतरण हिंदी- रामकुमार सिंह आम हिंदुस्‍तानी धोबी का कुत्‍ता जैसे, घर का ना घाट का पूरी तरह ना इधर का ना उधर का सुन बे निखट्टू तेरा वही तो हाल है जिंदगी की रेस में, जो मुंह उठा के दौड़ा जिंदगी ने मारी लात पीछे छोड़ा, तू है वो टट्टू गधे सी जिसकी चाल है प्‍यार में ठेंगा, बार में ठेंगा, क्‍योंकि बोतल भी गोरों की गुलाम है रूठी है महबूबा, रूठी रूठी शराब है आम हिंदुस्‍तानी तेरी किस्‍मत खराब है आसमान से यूं गिरा खजूर पै तू अटका तेरे हालात ने उठाके तुझको पटका की ऐसी चंपी कि तेरे होश उड़ गए बेवफाई देख के ना आई तुझको हिचकी चौड़ी छाती तेरी चुटकियों में पिचकी गम की पप्‍पी मिली तो बाल झड़ गए प्‍यार मे

दरअसल : आत्मघाती मुस्कान

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-अजय ब्रह्मात्मज     इन दिनों लगातार खबरें आ रही हैं कि हालीवुड की फिल्में हिंदी फिल्मों से अच्छा कारोबार कर रही हैं। पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर इन खबरों को लिखते और बताते समय यह भाव भी रहता है कि हिंदी फिल्में दर्शकों को आकर्षित नहीं कर पा रही हैं। इन खबरों में सच्चाई है,लेकिन इन्हें जिस अंदाज में परोसा जाता है,उससे यह जाहिर किया जाता है कि हिंदी फिल्मों के दिन लदने वाले हैं। हिंदी दर्शकों के बीच भी हालीवुड की फिल्मों का बाजार बनता जा रहा है। यह कोई नई बात नहीं है। हमारे स्वभाव में है कि हम किसी भी प्रकार के विदेशी प्रभाव से आए परिवर्त्तन को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। हम हमेशा हीनग्रंथि में रहते हैं। फिलहाल हालीवुड की फिल्मों को इस ग्रंथि से लाभ मिल रहा है।     हालीवुड की प्रमुख प्रोडक्शन कंपनियों ने भारत में अपनी दुकानें खोल ली हैं। कुछ तो हिंदी फिल्मों के प्रोडक्शन में भी आ चुकी हैं। हालीवुड और हिंदी फिल्मों की सम्मिलित पैकेजिंग से वे लाभ और नुकसान में संतुलन बिठा लेती हैं। वैसे भी अंग्रेजी में बनी-बनायी फिल्मों को भारत में वितरित कर वे अतिरिक्त कमाई ही करते हैं। अगर हिंदी,तम

एक नायक का अंतर्द्वद्व

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-अजय ब्रह्मात्‍मज       फिल्‍मों का पत्रकार होने की एक मुश्किल यह रहती है कि हमें फिल्‍मी सितारों के बारे में चल रही अफवाहों और प्रचलित छवि के बारे में सभी की जिज्ञासाओं के जवाब देने पड़ते हैं। ये जिज्ञासाएं ज्‍यादातर आरोप और लांछन के रूप में होती हैं। मैंने महसूस किया है कि सभी इन कलाकारों के लिए तृतीय पुरूष वह का इस्‍तेमाल करते हैं। मुझे दिक्‍कत होती है। फिल्‍म कलाकरों के लिए आप संबोधन क्‍यों नहीं होता ? क्‍यों माना जाता है कि वे बदचलन,बददिमाग और बदमाश ही होते हैं ? पर्दे पर उन्‍हें देख कर हम भाव विभोर होते हैं। अपने आचार-व्‍यवहार में उनकी नकल करते हैं। मिलने या दिख जाने पर उल्‍लसित होते हैं। इन सभी के बावजूद कहीं न कहीं फिल्‍म कलाकारें के प्रति एक तिरस्‍कार और हेय भाव रहता है। यह हमारे समाज की विडंबना है कि हम जिन्‍हें चाहते हैं,उनसे घृणा भी करते हैं।       बुधवार 6 मई को को सलमान खान को सेशन कोर्ट ने पांच साल की सजा सुनाई और हाई कोर्ट ने चंद घंटों के अंदर ही उन्‍हें दो दिनों की अंतरिम जमानत दे दी। शुक्रवार को उनकी सजा निलंबित करने के साथ जमानत दे दी गई। खबर है कि वे श

फिल्‍म समीक्षा : पीकू

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-अजय ब्रह्मात्‍म्‍ाज  **** चार स्‍टार  कल शाम ही जूही और शूजीत की सिनेमाई जुगलबंदी देख कर लौटा हूं। अभिभूत हूं। मुझे अपने पिता याद आ रहे हैं। उनकी आदतें और उनसे होने वाली परेशानियां याद आ रही हैं। उत्तर भारत में हमारी पीढ़ी के लोग अपने पिताओं के करीब नहीं रहे। बेटियों ने भी पिताओं को अधिक इमोशनल तवज्जो नहीं दी। रिटायरमेंट के बाद हर मध्यीवर्गीय परिवार में पिताओं की स्थिति नाजुक हो जाती है। आर्थिक सुरक्षा रहने पर भी सेहत से संबंधित रोज की जरूरतें भी एक जिम्मेदारी होती है। अधिकांश बेटे-बेटी नौकरी और निजी परिवार की वजह से माता-पिता से कुढ़ते हैं। कई बार अलग शहरों मे रहने के कारण चाह कर भी वे माता-पिता की देखभाल नहीं कर पाते। 'पीकू' एक सामान्य बंगाली परिवार के बाप-बेटी की कहानी है। उनके रिश्ते को जूही ने इतनी बारीकी से पर्दे पर उतारा है कि सहसा लगता है कि अरे मेरे पिता भी तो ऐसे ही करते थे। ऊपर से कब्जियत और शौच का ताना-बाना। हिंदी फिल्मों के परिप्रेक्ष्य में ऐसी कहानी पर्दे पर लाने की क्रिएटिव हिम्मत जूही चतुर्वेदी और शूजीत सरकार ने दिखाई है। 'विकी डोनर' के बाद एक बार

अाज्ञाकारी अभिनेता है अमिताभ बच्‍चन : इरफान

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-अजय ब्रह्मात्मज पहली बार अमिताभ बच्चन के साथ काम करने से अभिभूत इरफान उनकी तारीफ करते नहीं थकते। उन्होंने झंकार के साथ अमिताभ बच्चन से जुड़ी अपनी यादें ताजा कीं और अभिनेता अमिताभ बच्च्न को भी सहयोगी अभिनेता की नजर से डिकोड किया। बुडापेस्ट से लौटने के बाद इरफान ‘तलवार’ की शूटिंग में व्यस्त हो गए हैं। महाद्वीपों को लांघते हुए इरफान कभी भारत में हिंदी और अन्य भाषाओं की फिल्में कर रहे होते हैं तो हॉलीवुड की फिल्म के सिलसिले में पश्चिम के किसी देश में डेरा डाल देते हैं। इस मायने में वे हिंदी फिल्मों के अलहदा कलाकार हैं, जो समान गति से देश-विदेश की फिल्में कर रहे हैं। इस हफ्ते उनकी हिंदी फिल्म ‘पीकू’ रिलीज होगी। इसमें वह अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण के साथ दिखेंगे। इन दोनों कलाकारों के साथ यह उनकी पहली फिल्म है। कुछ महीने पहले एक अनौपचारिक बातचीत में इरफान ने बताया था कि लंबे समय के बाद अमिताभ बच्चन इंटेंस भूमिका में दिखेंगे। इस फिल्म में उन्हें काम करते हुए देखने का मेरा अनुभव बहुत अच्छा रहा। बात यहीं से शुरू होती है। इरफान बताते हैं, ‘बच्चन साहब का अपना एक ओरिएंटेशन रहा है। उनकी एक त

पीड़ा भी रंग है प्यार का : आनंद राय

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पीड़ा भी प्यार का रंग है : आनंद राय -अजय ब्रह्मात्मज आनंद राय अपने ही शब्दों में खुशमिजाज व्यक्ति हैं। उन्हें लोग पसंद हैं। वे अपने रिश्तों में सुरक्षित महसूस करते हैं। इस मुलाकात के लिए जाते समय मैंने उनके प्रशंसकों से सवाल मांगे थे। एक सवाल बड़ा रोचक आया था। उनके नायक प्रेम में पीड़ित क्यों रहते हैं। इस सवाल के जवाब में आनंद राय ने कहते हैं,‘एक बार खुद को किसी परीक्षा में डाल कर देखने पर ही प्यार का पता चलता है। शायद अचेतन रूप से मैं प्रमुख चरित्रों में से किसी एक को पीड़ा में ले जाता हूं। मुझे जरूरी लगता है। मेरी फिल्मों में नायक ही पीड़ित रहता है। पीड़ा भी प्यार का एक रंग है।’ आनंद राय के संदर्भ में यह बात नहीं लिखी जा सकती कि निर्देशक अपने स्वभाव के मुताबिक ही चरित्र चुनता है। आनंद राय का जवाब होता है,‘मेरे मामले में ऐसा नहीं है। मैं अपने अंदर से चरित्रों को नहीं निकालता। मैं चरिषें को अपने अंदर ले जाता हूं। फिर सोचता हूं कि अगर मैं खुद उनकी स्थितियों में पाता तो क्या करता? आखिरकार एक कहानी है। मैं खुद को सारे चरित्रों में बांट देता हूं। हा किरदार मेरे अंदर जीता है।’     आनंद राय इस

बाम्‍बे वेलवेट,अनुराग और युवा फिल्‍मकारों पर वासन बाला

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अनुराग तो वह चिंगारी हैं,जो राख में भी सुलगते रहते हैं। मौका मिलते ही वे सुलगते और लहकते हैं। उनकी क्रिएटिविटी की धाह सभी महसूस करते हें। 15 मई को उनकी नई फिल्‍म बाम्‍बे वेलवेट   रिलीज होगी। हम यहां उनके सहयात्री और सपनों के साथी वासन बाला का इंटरव्‍यू दे रहे हैं।  -कहा जा रहा है कि अनुराग कश्‍यप जिनके खिलाफ थे,उनसे ही उन्‍होंने हाथ मिला लिया है। अनुराग के विकास और प्रसार को लेकर अनेक धारणाएं चल रही हैं। स्‍वयं अनुराग ने चंद इंटरव्‍यू में अपनी ही बातों के विपरीत बातें कीं। आप क्‍या कहेंगे ? 0 अनुराग कश्‍यप का कहना था कि जिनके पास संसाधन हैं,वे कंटेंट को चैलेंज नहीं कर रहे हैं। अनुराग संसाधन मिलने पर उस कंटेट को चैलेंज कर रहे हैं। बाम्‍बे वेलवेट का माहौल,कंटेंट,कैरेक्‍टर और पॉलिटिक्‍स देखने के बाद आप मानोगे कि वे जो पहले बोल रहे थे,अब उन्‍हीं पर अमल कर रहे हैं।   उन्‍हें संसाधन मिले हैं तो वे उसका सदुपयोग कर रहे हैं। हमलोंग हमेशा कहते रहे हैं कि कमर्शियल सिनेमा में दिखावे के लिए फिजूलखर्ची होती है। किसी गृहिणी का आठ लाख की साड़ी पहनाने का क्‍या मतलब है ? वे इन चीजों के खिला

कंगना रनोट की कुछ छवियां

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अपने प्रदेश की सरकार से सम्‍मानित होने का गौरव सबसे बड़ा और आत्‍मीय होता है। कंगना रनोट को हिमाचल प्रदेश सरकार ने प्रेरणा स्रोत सम्‍मान से सम्‍मानित किया है। स्‍कूल के दिनों की एक तस्‍वीर। ओफ्फ वही चेहरा और वही खामोश वीरानगी व नाराजगी। सम्‍मान और पुरस्‍कार के लिए पिता के द्वारा दिया गया भोज। इस तस्‍वीर में कंगना भी पंगत में बैठी है। कंगना का पैतृक निवास।

फिल्‍म समीक्षा : गब्‍बर इज बैक

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  स्‍टार- तीन स्‍टार ***  अक्षय कुमार की 'गब्बर इज बैक' हिंदी फिल्मों की उस जोनर की फिल्म है, जिसमें हीरो ही सब कुछ होता है। उसकी हीरोगिरी साबित करने के लिए ही सारे विधान रचे जाते हैं। खासकर सलमान खान ने ऐसी फिल्मों की मिसालें पेश कर दी हैं। उन्हें भी यह नुस्खा दक्षिण से मिला है। अक्षय कुमार की 'गब्बर इज बैक' तमिल की मूल 'रमन्ना' की रीमेक है, जिसके लेखक और निर्देशक ए आर मुरूगोदौस थे। यह फिल्म दक्षिण की अन्य भाषाओं में भी बन चुकी है। निर्देशक क्रिश ने नायक का मूल मिजाज वही रखा है। हिंद फिल्मों के दर्शकों का खयाल रखते हुए उन्होंने कुछ प्रासंगिक मुद्दे जोड़ दिए हैं। सभी मुद्दे करप्शन से संबंधित हैं। इस फिल्म में शरीर से अधिक शब्दों का एक्शन है। अक्षय कुमार के लिए संवादों की एक्शन रायटिंग रजत अरोड़ा ने की है। उन्होंने अक्षय को सिग्नेचर संवाद दिया है 'नाम विलेन का,काम हीरो का'।  बताने की जरूरत नहीं कि गब्बर हिंदी फिल्मों का प्रिय खलनायक रहा है। युवा दर्शकों की जानकारी के लिए गब्बर का किरदार निभा चुके अमजद खान की लोकप्रियता का इससे भ