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समकालीन सिनेमा(3) : डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी मुझे लगता है कि अब दर्शकों के पास चुनाव भी बहुत हो गए हैं। पहले एक वैक्यूम था। आप सातवें-आठवें दशक में चले जाइए आपके पास समांतर सिनेमा का कोई पर्याय नहीं था। आप जरा भी कला बोध अलग रखते हैं , अलग कला अभिरुचि रखते हैं तो आपके पास दूसरे सिनेमा का विकल्‍प था। तब के भारत के दर्शकों को विदेशी फिल्में सहजता से उपलब्ध नहीं होती थी। आज के सिनेमा के लिए टीवी भी जिम्‍मेदार है। टेलीविजन पर शुरू में प्रयोग हुए , अब टेलीविजन अलग ढर्रे पर चला गया है। अभी टेलीविजन चौबीस घंटे चलता है। चौबीसों घंटे न्यूज का चलना। जो विजुअल स्पेस था,उस स्पेस में बहुत सारी चीजें आई जो दर्शकों के मन को रिझाए रखती हैं। दर्शकों के लिए सार्थक है या सार्थक नहीं है मायने नहीं रख रहा है। दूसरा सार्थक सिनेमा के नाम पर हमलोग जो सिनेमा बनाते रहे,वह या तो किसी पॉलिटिकल खेमे में रहा या किसी के एजेंडा में बना। इसलिए वह सिनेमा भी आखिरकार आम दर्शक का सिनेमा नहीं बन पाया। जब कभी भी इस तरह की फिल्में बनती हैं तो अक्सर मैं देखता हूं,वे दंगे से ग्रस्त हैं या तो दंगे के खिलाफ हैं या उसके पीछे खास राजनी

समकालीन सिनेमा(2) : डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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-डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी अभी जो लोग यह निर्णय कर रहे हैं कि फिल्म कौन सी बननी चाहिए, वे सौभाग्य या दुर्भाग्य जो भी कह लें,डीवीडी फिल्में देख कर ही निर्णय करते हैं। अभी तक हमारी फिल्में किसी और देश के सिनेमा पर आधारित हैं। कॉरपोरेट की बाढ़ आने से अधिकतर निर्देशकों को शुरू में यह विश्वास था कि नए सिरे कहानियों का मूल्यांकन शुरू होगा, जो बाद भ्रम साबित हुआ। उम्‍मीद थी कि नए सिरे से कथाओं का मूल्यांकन होगा और नए प्रयोगधर्मी   फिल्में बनेगी। आशा के विपरीत परिणाम दूसरा है। मैं कह सकता हूं कि इस प्रकार के निर्णय जो लोग लेते हैं, वे लोग बाबू किस्म के लोग होते हैं। उन्‍हें साल के अंत में एक निश्चित लाभ दिखाना होता है। इसलिए वे भी यही मानते और तर्क देते हैं कि बड़ा कलाकार , बड़ा निर्देशक और सफलता। वे उसके आगे-पीछे नहीं देख पा रहे हैं   ¸ ¸ ¸    सबसे बड़ी बात हमारे पास लंबे समय से ऐसा कोई निकष नहीं रहा,जिसके आधार पर कह सकते हैं कि कॉरपोरेट के अधिकारी वास्तव में कथा के मूल्यांकन के योग्य भी है। हमारे यहां योग्यता का सीधा पर्याय सफलता है। जो सफल है,वही योग्य है। समरथ को नहीं दोष गोसाईं।

समकालीन सिनेमा - डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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समकालीन सिनेमा पर इस सीरिज की शुरूआत डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी के लेख से हो रही है। अगली सात-आठ कडि़यों में यह लेख समाप्‍त होगा। इस सीरिज में अन्‍य निर्देशकों को भी पकड़ने की कोशिश रहेगी। अगर आप किसी निर्देशक से कुछ लिखवा या बात कर सकें तो स्‍वागत है। विषय है समकालीन सिनेमा....  डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेदी          हिंदी सिनेमा कहते ही मुझे हिंदी साहित्‍य और संस्‍कृति की ध्‍वनि नहीं सुनाई पड़ती। जैसे कन्नड़ का एक अपना सिनेमा है, बंगाल का अपना एक सिनेमा है , तमिल का अपना एक सिनेमा है। उन भाषाओं के सिनेमा में वहां का साहित्‍य और संस्‍कृति है। कन्नड़ में गिरीश कासरवल्ली लगभग पच्चीस फिल्में बनाईं। वे कम दाम की रहीं , कम बजट की रहीं। उनकी सारी फिल्में किसी न किसी कथा , लघुकथा या उपन्यास पर आधारित हैं। उन्होंने पूरी की पूरी प्रेरणा साहित्य से ली। दक्षिण के ऐसे कई निर्देशक रहे जो लगातार समांतर सिनेमा और वैकल्पिक सिनेमा को लेकर काम करते रहे। हमारे यहां लंबे समय तक श्याम बेनेगल , गोविंद निहलानी उस सिनेमा के प्रतिनिधि रहे। उसके बाद मैं जिनको देख सकता हूं जिन्होंने समानांतर और व्याव

फिल्‍म समीक्षा : मोहेंजो दारो

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-अजय ब्रह्मात्‍मजंं अभी हमलोग 2016 ई. में हैं। आशुतोष गोवारीकर अपनी फिल्‍म ‘ मोहेंजो दारो ’ के साथ ईसा से 2016 साल पहले की सिंधु घाटी की सभ्‍यता में ले जाते हैं। प्रागैतिहासिक और भग्‍नावशेषों और पुरातात्विक सामग्रियों के आधार पर आशुतोष गावारीकर ने अपनी टीम के साथ रचा है। उनकी यह रचना कल्‍पनातीत है। चूंकि उस काल के पर्याप्‍त साक्ष्‍य नहीं मिलते,इसलिए आशुतोष गोवारीकर को ‘ मोहेंजो दारो ’ की दुनिया रचने की छूट मिल गई। इन तथ्‍यों पर बहस करना अधिक महत्‍व नहीं रखता कि कपड़े,पहनावे,भाषा और व्‍यवहार में क्‍या होना या नहीं होना चाहिए था ? ‘ मोहेंजो दारो ’ में लेखक और निर्देशक सबसे ज्‍यादा ‘ कदाचित ’ शब्‍द का इस्‍तेमाल करते हैं। ‘ कदाचित ’ का सरल अर्थ शायद और संभवत: है। शायद जोड़ते ही हर बात अनिश्चित हो जाती है। शायद एक साथ ‘ हां ’ और ‘ ना ’ दोनों है। फिल्‍म के संवादों में हर प्रसंग में ‘ कदाचित ’ के प्रयोग से तय है कि फिल्‍म के लेखक और निर्देशक भी अपने विवरण और चित्रण के प्रति अनिश्चित हैं। उनकी अनिश्चितता का असर फिल्‍म के विधि-विधान पर स्‍पष्‍ट है। 4032 साल पहले हड़प्‍पा से

फिल्‍म समीक्षा : रुस्‍तम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज 1963 की ‘ ये रास्‍ते हैं प्‍यार के ’ और 1973 की ‘ अचानक ’ से भिन्‍न है ‘ रुस्‍तम ’ । ‘ रुस्‍तम ’ की प्रेरणा छठे दशक के नौसेना अधिकारी के जीवन से भले ही ली गई हो,पर इसे टीनू सुरेश देसाई ने लेखक विपुल के रावल के साथ मिल कर विस्‍तार दिया है। फिल्‍म में 1961 की यह कहानी छल,धोखा,बदला और हत्‍या से आगे बढ़ कर एक ईमानदार नौसेना अधिकारी के देशप्रेम और राष्‍ट्रभक्ति को छूती हुई उस दौर की मुंबई के परिवेश को भी दर्शाती है। तब मुंबई कां बंबई कहते थे और शहर में पारसी और सिंधी समुदाय का दबदबा था। फिल्‍म में कलाकारों के भूमिका से पहले इस फिल्‍म के प्रोडक्‍शन से जुड़े व्‍यक्तियों के योगदान को रेखांकित किया जाना चाहिए। 1961 की मुंबई का परिवेश रचने में कठिनाइयां रही होंगी। हालांकि वीएफएक्‍स से मदद मिल जाती है,लेकिल तत्‍कालीन वास्‍तु और वाहनों को रचना,जुटाना और दिखाना मुश्किल काम है। प्रोडक्‍शन डिजायन प्रिया सुहास का है। आर्ट डायरेक्‍टर विजय घोड़के और अब्‍दुल हमीद ने बंबई को फिल्‍म की जरूरत के हिसाब से तब का विश्‍वसनीय परिवेश दिया है। सेट को सजाने का काम केसी विलियम्‍स न

दरअसल : सोशल मीडिया के दौर में फिल्‍म समीक्षा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले हफ्ते जयपुर में था। वहां ‘ टॉक जर्नलिज्‍म ’ के एक सत्र में विष्‍य था ‘ सोशल मीडिया के दौर में किसे चाहिए फिल्‍म समीक्षक ?’ । सचमुच अभी सोशल मीडिया पर जिस तेजी और अधिकता में फिल्‍मों पर टिप्‍पणियां आ रही हैं,उससे जो यही आभास होता है कि शायद ही कोई फिल्‍म समीक्षा पढ़ता होगा। अखबारों और चैनलों पर नियमित समीक्षकों की समीक्षा आने के पहले से सोशल मीडिया साइट पर टिप्‍पणियां चहचहाने लगती हैं। इनके दबाव में मीडिया हाउस भी अपने साइट पर यथाशीघ्र रिव्‍यू डालने लगे हैं। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार तो प्रीव्‍यू में रिव्‍यू का भ्रम देता है। केवल आखिर में एक पंक्ति रहती है कि हमारे समीक्षक की समीक्षा का इंतजार करें। हम जल्‍दी ही पोस्‍ट करेंगे। सभी हड़बड़ी में हैं। डिजिटल युग में आगे रहना है तो ‘ सर्वप्रथम ’ होना होगा। जो सबसे पहले आएगा,उसे सबसे ज्‍यादा हिट मिलेंगे। इस दबाव में कंटेंट पर किसी का ध्‍यान नहीं है। पहले बुधवार या गुरूवार को निर्माता फिल्‍में दिखाते थे। अखबारों में शनिवार और रविवार को इंटरव्‍यू छपते थे। फिल्‍मों पर विस्‍तार से चर्चा होती थी। आज के पाठक

अतीत को रचना है आनंद : आशुतोष गोवारीकर

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मुझे अलग दुनिया क्रिएट करने में मजा आता है। हां यह मुश्किल काम है। पर इसमें अलग तरह की संतुष्टि है। इसके जरिए पहले मुझे रिसर्च औऱ बाकी तरीकों से उस दुनिया में जाने का मौका मिलता है। फिर उसे क्रिएट करना होता है। एक अलग समय की कहानी की तरफ मैं बहुत आकर्षित होता हूं। टाइमजोन क्रिएट करने में खुशी मिलती है। सवाल हो सकता है कि यही संस्कृति क्यों ? क्योंकि हम सालों से रोम और मिश्र की सभ्यता देखते आ रहे हैं। यूरोप की फिल्मों में हम यह देख चुके हें। वे बहुत गर्व के साथ इसे प्रस्तुत करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि हमने कभी अपनी सभ्यता के बारे में फिल्म नहीं बनाई। लगान के वक्त जब मैं रेकी के लिए कच्‍छ के आसपास धौलावीरा गया,तभी कहीं ना कहीं मेरे दिमाग में था कि इस पर फिल्म बनाऊंगा। इस संस्कृति पर फिल्म बनाना मेरे लिए दिलचस्प था। वे कौन लोग थे ? क्या लोग थे ? इनका समाज क्या था ? धर्म था कि नहीं ? इनके भगवान कौन थे ? ऐसी बहुत सारी चीजों की कोई जानकारी हमारे पास नहीं है। इसकी वजह यही है कि प्रागैतिहासिक काल की इस सभ्‍यतो के बारे में कुछ भी लिखित   नहीं है। सारी कल्पना वहां मिली आर्टफेक्स स

फिल्‍म समीक्षा : बुधिया : बॉर्न टू रन

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कथा और व्‍यथा -अजय ब्रह्मात्‍मज मयूर पटेल और मनोज बाजपेयी की फिल्‍म ‘ बुधिया : बॉर्न टू रन ’ उड़ीसा के बुधिया और बिरंची की कहानी है। फिल्‍म का शीर्षक बुधिया है। वह शिशु नायक है। बुधिया के साथ-साथ बिरंची की भी कहानी चलती है। दो व्‍यक्तियों के परस्‍पर विश्‍वास और संघर्ष की यह कहानी रोमांचक,प्रेरक और मनोरंजक है। सोमेंद्र पाढ़ी ने इसे बड़ यत्‍न से गूंथा है। बॉयोपिक फिल्‍मों के इस दौर में ‘ बुधिया... ’ बेहतरीन उदाहरण है। फिल्‍म में ढलने के बावजूद बुधिया और बिरंची का चरित्र नैसर्गिक और आर्गेनिक रहता है। हालांकि ‘ बुधिया... ’ को सर्वश्रेष्‍ठ बाल फिल्‍म का राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिला है,लेकिन यह फिल्‍म सभी उम्र के दर्शकों के लिए है। इस फिल्‍म का गहन दर्द है कि बुधिया के दौड़ने पर आज भी पाबंदी है। वह 2016 के ओलिंपिक में नहीं जा सका। अगर दबाव बढ़े और आवाज उठे तो इस होनहार धावक की प्रतिभा से विश्‍व परिचित हो और देश का भी गौरव बढ़े। ‘ बुधिया... ’ उड़ीसा के पांच साल के बच्‍चे की कहानी है। वह जन्‍मजात धावक है। बचपन में जूडो कोच बिरंची की पारखी नजर उसे भांप लेती है

फिल्‍म समीक्षा : फीवर

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एकरूप किरदारों की उलझन -अजय ब्रह्मात्‍मज राजीव झावेरी का इरादा ‘ फीवर ’ को रोचक और रोमांचक फिल्‍म के रूप में पेश करने का रहा होगा। वे भरपूर कोशिश करते हैं। उन्‍‍हें राजीव खंडेलवाल के रूप में एक समर्थ अभिनता भी हासिल है। वह विस्‍मृति का शिकार होने पर भी दर्शकों को बांधे रखने और मूल कहानी पर परिचित चरित्रों के बीच पहुंचना वाहता है। उसके जीवन में आई लड़कियां उसे उलझाए रखती हैं या यूं कहें कि  अपनी विस्‍मृति की वजह से वह उन्‍हें बार-बार उलझन में डाल देता है। एक समय के बाद रिया,काव्‍या,पूजा सभी गड्डमड्ड होने लगती हैं। ’ फीवर ’ में तीन लड़कियां हैं। इन दिनों ज्‍यादातर लड़कियों के लुक और पहनावे में ऐसी एकरूपता रहती है कि उन्‍हें अलग करना मुश्किल होता है। खास कर नई अभिनेत्रियां हों और उनकी अपनी पहचान न हो तो मुश्किल बढ़ जाती है। ‘ फीवर ’ में एक तो इन चरित्रों को गूढ़ तरीके से गढ़ गया है और फिर संवाद अदायगी,चाल-ढाल,लुक और पहनावे की समानता में दर्शकों को भी विस्‍मृति के कगार पर ले जाती हैं। अकेले राजीव खंडेलवाल माले के धागे की तरह फिल्‍म के सभी फूलों को जोड़े रखने की कोशिश करते हैं

दरअसल : क्‍यों बेतुका बोलते हैं स्‍टार?

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सुल्‍तान की रिलीज के कुछ दिनों पहले सलमान खान के एक कथन से हंगामा मच गया था। उनके पिता सलीम खान ने माफी मांगी,फिर भी एक समूह सलमान खान से नाखुश है। यह वाजिब भी है। सलमान खान सरीखे पॉपुलर स्‍टार की जुबान कैसे फिसल सकती है ? क्‍या बोलते समय उन्‍हें अहसास नहीं रहा होगा कि उनके इस कथन के कई अभिप्राय निकलेंगे। सच कहें तो सलमान खान इतना नहीं सोचते। और फिर इन दिनों बातचीत को मसखरी बना दिया गया है। कोशिश रहती है कि ऐसे सवाल पूछे जाएं कि स्‍टार को हंसी आ जाए। स्‍टार भी पत्रकारों का मनोरंजन करते हैं। कभी अपनी हरकतों से तो कभी अपनी बातों से। इन दिनों हर इवेंट में सवालों का मखौल बना दिया जाता है। मंच पर बैठे स्‍टार और उनके सहयोगी तफरीह लेने लगते हैं। दरअसल,अधिकांश फिल्‍म स्‍टार और डायरेक्‍टर पब्लिक स्‍पीच में अनगढ़ होते हैं। सभी को अमिताभ बच्‍चन और शाह रुख खान की तरह सटीक जवाब देना नहीं आता। अधिकांश हिंदी में तंग हैं,इसलिए वे हिंदी में खुद को एक्‍सप्रेस नहीं कर पाते। ऐसा नहीं है कि उनकी अंग्रेजी बहुत अच्‍छी होती है। सीमित शब्‍दों में सीमित भावों के साथ ही वे अपनी बातें